________________
अष्टमोऽध्यायः
( ५६
करने से असंख्यात भेद हो सकते हैं और कर्मव्यक्तियों की अपेक्षा मोहनीय के अनन्त भेद हो सकते हैं जिनका कि लिखना ही अशक्यानुष्ठान है । अतः मध्यमरुचिवाले तत्त्वजिज्ञासुओं के प्रति मध्यमरूप से भेदों का प्रतिपादन करना ही सूत्रकार महाराज का स्तुत्य प्रयत्न है ।
दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकपायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः
हास्यरत्यरतिशोकभय
सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकपायकपायौ जुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसकवेदा अनंतानुवंध्य प्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः ॥ ९ ॥
दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय तथा अकषाय वेदनीय एवं कषायवेदनीय इन संज्ञाओं को धारनेवाले यथाक्रम से तीन, दो, नौ और सोलह भेद, उस मोहनीय कर्म के हैं । प्रथम ही दर्शनमोहनीय के सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और उन दोनों का मिला हुआ उभयसम्यङ्मथ्यात्व ये तीन भेद है । चारित्र मोहनीय कर्म के अल्पकषाय रूप करके और कषाय रूप से वेदनेयोग्य अकषाय और कषाय ये दो भेद हैं तिन में ईषत् कषाय कर्म के हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसक वेद ये नौ भेद हैं, तथा कषायरूपेण अनुभवने योग्य कषायकर्म के अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, और संज्वलन ये चार विकल्प होते हुये एक एक के क्रोध, मान, माया, और लोभ ये चारचार भेद होकर कषायवेदनीय मोहकर्म के सोलह भेद हो जाते हैं । यों मोहनीय कर्म के संपूर्ण भेद अट्ठाईस हुये ।
'
दर्शनादिभिस्त्रिद्विनवषोडशभेदानां यथासंख्येन संबंध: । दर्शनमोहनीयं त्रिभेदं । चारित्रमोहनोयं द्विभेद, अकषायवेदनीयं नवविधं, कषायवेदनीयं षोडशविधमिति । तत्र दर्शन - मोहनीयं त्रिभेदं सम्यक्त्व मिथ्यात्व तदुभयानीति । तद्वंधं प्रत्येकं भूत्वा सत्कर्म प्रतीत्य त्रेधा । इस सूत्र की आदि में प्रयुक्त किये गये दर्शन आदि चार पदों के साथ तीन, दो, नौ और सोलह भेदों के वाचक पदों का यथासंख्य यानी क्रम अनुसार संबंध कर लेना चाहिये । उस से यो अर्थ संपन्न हो जाता है कि दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकार हैं और चारित्रमोहनीय कर्म के दो भेद हैं। नौ प्रकार वाला अकषाय वेदनीय है तथा कषायवेदनीय सोलह प्रकार का है । उन चारों में पहिला दर्शनमोहनीय कर्म तो सम्यक्त्वः कृति और