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अष्टमोऽध्यायः
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गुणस्थान के सिवाय सर्वदा दोषोत्पादन करता रहता हैं अतः वह अनंतानुबंधी कर्म हैं। जो स्वल्प भी देशव्रत को नहीं करने देता है वह अप्रत्याख्यानावरण है। यह कर्म अणुव्रतरूप ईषत् प्रत्याख्यान का आवरण करता है। जो पूर्णसंयम नामक प्रत्याख्यान का आवरण करें. वे प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। संयम के साथ भी जो एकार्थसमवायसंबन्ध से आत्मा में कर्मानुभव होता रहे अथवा जिन कर्मोंका उदय होनेपर भी संयम जाज्वल्यमान होकर चमकता रहे वे संज्वलन कर्म हैं। यों मोहनीय के अट्ठाईस उत्तर प्रकृतिबंध को समझा दिया गया है।
कुतो मोहस्याष्टाविंशतिः प्रकृतयः सिद्धा इत्याह--
यहां कोई तर्कबुद्धि शिष्य आक्षेप करता है कि किस प्रमाण से मोहनीय कर्म की अट्ठाईस उत्तर प्रकृतियां सिद्ध होती हैं ? बताओ । प्रमाणों द्वारा सिद्ध किये विना वचनमात्र से किसी परोक्ष तत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती है। ऐसा आक्षेप प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अनुमानप्रमाण रूप उत्तरवातिक को कहे देते हैं।
दर्शनेत्यादि सूत्रेण मोहनीयस्य कर्मणः
अष्टाविंशतिराख्यातास्तावद्धा कार्यदर्शनात् ॥१॥
" दर्शनचारित्रमोहनीय" इत्यादि सूत्र करके मोहनीय कर्म की अट्ठाईस उत्तरप्रकृतियां गुरुपर्वक्रम अनुसार सूत्रकार महाराज ने कह दी हैं (प्रतिज्ञा) तितने प्रकार से कार्यों का दर्शन होने से (हेतु) । अर्थात् जितने प्रकार के कार्य देखे जायेंगे उतने प्रकार के अंतरंग कारणों का अनुमान कर लिया जाता है । तत्त्वार्थ अश्रद्धान आदि अट्ठाईस प्रकार के कार्यों के अतरंग कारण कर्म अट्ठाईस होने ही चाहिये “ कार्यलिंगं हि कारणं"।
प्रसिद्धान्येव हि मोहप्रकृतीनामष्टाविंशतेस्तत्त्वार्थाश्रद्धानादीनि कार्यारिण मिथ्यात्वादीनामिहेति न प्रतन्यते । ततस्तदुपलंभात्तासामनुमानमनवद्यमन्यथा तदनुपपत्तेदृष्टकारणव्यभिचाराच्च ॥
मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियों के तत्त्वार्थ अश्रद्धान, हंसना, क्रोध करना, आदिक कार्य इस लोक में आबालवनिता में प्रसिद्ध ही हैं। इस कारण उन मोहनीय कर्म के कार्यों का यहां विस्तार नहीं किया जाता है। तिसकारण उन कार्यों का उपलंभ होने से उन मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का व्यभिचार आदि दोषरहित