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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
छा रहा है। अतः ज्ञानावरण का सतत उदय बना रहनेसे अज्ञानी जीवकी ज्ञानसामर्थ्य नष्ट हो गई है, अच्छी स्मृतियोंक। लोप होजानेसे धर्ममार्ग के सुनने में जीवका उत्साह नहीं है यों ज्ञानके अनादरसे किये गये बहुत दुःखों को जीव भोग रहा है, कल्याणमार्ग में लगानेवाला प्रधान कारण ज्ञान ही है । जब ज्ञानावरण कर्मसे ज्ञान गुण ही लुप्तप्राय हो गया है तभीतो अनादि कालसे महान दुःखों को भोग रहा है। तिस कारण सिद्ध होता है कि यह अज्ञान, अतीव दुःखी जीव अनादि कालसे ही कर्मबद्ध हैं । जो कोई सांख्यमती पण्डित जीवकी अनादिकालसे ही परमनिवृत्ति यानी मोक्ष होरही स्वीकार कर रहे हैं, इस प्रकार उन कापिलोंका दर्शन युक्तिसिद्ध नहीं है । कनकपाषाण और अन्धपाषाण के दृष्टान्तद्वारा जीवको अनादिबंधनबद्ध सिद्ध किया जाचुका है । यहां श्रीविद्यानन्द महाराजके प्रति किसी जिज्ञासुका प्रश्न है कि जीवके उक्त सूत्र अनुसार मति आदि ज्ञानों के आवरणोंको भला किस प्रमाण से सिद्धि हो जाती है ? बताओ। इस प्रकार विनीत शिष्यकी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार इस अग्रिमवार्तिक को कहे देते हैं।
मत्यादीनां हि पंचानां ज्ञानानां पंचवे दितं
कर्मावरणमन्यस्य हेतो वेप्यभावतः॥१॥ - मति आदिक पांच ज्ञानोंके आवरण करनेवाले कर्म पांच हो उक्त सूत्रमें, निवेदन किये जाचुके ठीक है (प्रतिज्ञा) क्योंकि अन्य बहिरंगहेतुओंके होने पर भी मति आदिक ज्ञानों की उत्पत्तिका अभाव है अर्थात् कतिपय सेठों, राजाओं या पण्डितों के पुत्रों के निकट धन अध्यापक, पुस्तकें, विद्यालय आदि सामग्रियोंके होते हुये भी उनको विशेष विद्वत्ताको प्राप्ति नहीं होती देखी जती है । अतः ज्ञानों का आवरण करनेवाले अव्यभिचारी कारण अंतरंग पौद्गलिककारण होरहे कर्मोंकी सिद्धि हो जाती है "दृष्टकारणव्यभिचारेऽदृष्ट कारण सिद्धिः" प्रत्येक कार्यकी नियतनिष्पत्तिमें नियत कारण होना ही चाहिये ।
सत्यात्मन्युपादामहेतौ कालाकाशादौ समाने विषये च योग्यदेशवतिन्याहार परे पदेशाभ्यासादौ च कस्यचिन्मत्यादिज्ञानविशेषारणामभावात् । ततोन्यत्कारणमदृष्टमनमीयते तत्तदावरणमेव भवितुमर्हतीति निश्चयः ॥
उक्त कारिकाका विवरण यों है कि ज्ञानके उपादानकारण माने गये आत्माके होते सन्ते तथा काल आकाश, पुस्तक, आदि निमित्त कारणोंके समान होते हुये भी और योग्य देशमें वर्तरहे अवलम्ब कारण विषयके होते हुये, एवं आहार करना, परोपदेश प्राप्ति, अभ्यास