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अष्टमोऽध्यायः
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___यहां कोई दूसरा विद्वान् एक शंकाको बहुत अच्छे ढंगसे कह रहा है कि अभव्य जीव के परली बाजूके मनःपर्यय ज्ञानावरण और केवल शानावरण ये दोनों आवरण नहीं बनते है । क्योंकि जव अभव्यके सर्वदा पहिला ही गुणस्थान होता है तो छठेसे ऊपर बारहवे गुरणस्थानतक सम्भवनेवाला मनःपर्ययज्ञान और तेरहवेसे ऊपर पाये जारहे. केवलज्ञान के होनेकी योग्यता ही नहीं है, ऐसी दशामें उन दोनों ज्ञान पर्यायोंका अभाव हो जानेसे फिर किनको आवरण कर रहे, दो परली ओर के आवरण कर्म मान लिये जांय ? बताओ। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि हम इसका उत्तर कह चुके हैं। पुनः वह पूछे कि इसका उत्तर क्या कहा जाचुका है ? बताओ। यों किसी विस्मरणशीलका बलात्कारसे प्रश्न उठने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि अभी जो आदेशवचन से समाधान किया जाचुका है, स्वल्पकाल पहिले ही द्रव्यदृष्टिसे सत्का आवरण देखा जारहा कह दिया है और पर्यायदृष्टिसे कोई वहां मनःपर्यय ज्ञान या केवलज्ञान भावान्तर विद्यमान नहीं है यह भी बतला दिया है। प्रत्याख्यानावरणका दृष्टान्त देकर "अर्थान्तराभावाच्च" कह दिया है। द्रव्याथिकनय अनुसार कथन करनेसे विद्यमान होरहे भी मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञानका - भावरण हो जाना स्वीकार लेनेपर स्याद्वाद्वियोंके यहां अभव्यको भव्यपन का प्रसंग नहीं भाजावेगा क्योंकि कदाचित् भी यानी तीन काल में भी उन दोनों आवरणोंके क्षयोपशम मा क्षय हो जानेका असम्भव हैं । अर्थात् अभव्य के सर्वदा उक्त दोनों कर्मोके सर्वघाति स्पर्धकोंका तीव्र उदय रहता है। पर्वतों के नीचे दबी हुई मट्टीमें घट बनने की शक्ति है तथापि उससे घट बनता नहीं है। चाकके ऊपर रक्खी हुई मट्टी और अगाध समुद्र के नीचे दबी हुई मट्टीका जाति अपेक्षा कोई भेद नहीं है । इसी प्रकार अभव्य और भव्यके चेतना गुणोंमें कोई विजातीय अन्तर नहीं है । दोनों ही गुण कारण मिलजानेपर और प्रतिबंधकोंके हट जानेपर केवलज्ञानरूप हो सकते हैं। भोगभूमि या स्वर्गके कल्पवृक्षोंकी शाखा का दण्ड भी घट को बनानकी योग्यतारूप कारणता को धारता है। किन्तु प्रतिबंधकोंके नहीं हटनेसे वह कलोपधायक नहीं हो सकता है। जिससे कि वैशेषिकों के मत अनुसार "स्वजन्यभ्रमिजन्यकपालद्वयसंयोगवत्व" सम्बंध करके घटका अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती कारण हो सके। किन्तु अभव्य जीवके सर्वदा दोनों आवरण लगे रहते हैं, अतः अभव्यका चेतनागुण उन दो पर्यायोंस्वरूप नहीं परिणम सकता है । तथा पर्यायाथिकनय अनुसार कथन कर देनेसे असत् होरही भी उन दोनों मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान पर्यायोंका आवरण होना घटित हो जाता है। क्योंकि उत्पत्तिका प्रतिबंध कर रहे पदार्थको भी आवरणपना प्रसिद्ध है। ज्वरके प्रथम ही ज्वरोपशमक