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अष्टमोध्यायः
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आदिमें ज्ञानावरण कर्मोका क्षयोपशम नहीं सम्भवता है तथा ज्ञानसे भरपूर होरहे केवलज्ञानी आत्मामें भी ज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं है। यों कथंचित् सत् होरहे ही ज्ञानोंका आवरण होना संभवता है।
___ अर्थांतराभावाच्च प्रत्याख्यानावरणवत् । यस्योदये हयात्मनः प्रत्याख्यान परिणामो नोत्पद्यते तत्प्रत्याख्यानावरणं न पुनरर्थांतरं प्रत्याख्यानमावृतस्याभावात् । तद्वदात्मनो यत्क्षयोशमे सति मतिज्ञानादिरूपतयोत्पत्तिस्तन्मत्याद्यावरणं न पुनरर्थातरं मत्यादिज्ञानमावृतस्यासंभवात् ।
दूसरी बात यह भी हैं कि जिस प्रकार महाव्रत स्वरूप प्रत्याख्यान कोई पिण्ड सरीखा आत्मा में नहीं रख्खा हुआ है जिसका कि आवरण करनेसे प्रत्याख्यानावरण कर्म माना जाय, किन्तु जिस प्रत्याख्यानावरण नामकर्मका उदय होनेपर आत्माके चारित्रगुण की प्रत्याख्यानपरिणति नहीं उपजपाती है वह प्रत्याख्यानावरण कर्म है, इससे भिन्न फिर कोई प्रत्याख्याननामक पदार्थ नहीं है। यों आवरण किये जा चुके किसी छुपे हुये प्रत्याख्यानका अभाव है । अतः जैसे कोई अर्थान्तर नहीं होनेसे प्रत्याख्यानावरण अपना नियतकार्य करता हुआ कर्म माना गया है उसी के समान जिस कर्मका क्षयोपशम हातेसन्ते आत्माके चेतनगुणकी म तज्ञानरूप परिणति करके उत्पत्ति हो जाती है वह मतिज्ञानावरण कर्म है। इसी प्रकार जिस (वृतज्ञानावरण आदि) कर्मका क्षपोपशम हो जानेपर आत्माको श्रुतज्ञानादिरूप करके उत्पत्ति हो जाती है वह श्रुतज्ञानावरण आदि कर्म हैं । किन्तु फिर कोई मति आदिक ज्ञान अर्थान्तर नहीं रख्खा हुआ है, कारण कि आवरण किये जाचुके सद्भूत पदार्थका असभ्मव है । भावार्थ पर्याय रूपसे विद्यमान होरहे ज्ञानका आवरण नहीं किया गया है। प्रथमसे ही शीतल वायुके झकोरोंसे प्रसन्न होरहे पुरुष को जैसे पसीना नहीं आपाता है वा चेवकका अव्यर्थ टीका लगादेनेपर मातायें नहीं निकलती हैं, भूकसे प्रथम ही डटकर खाजानेवाले आतुर धनाढयको भूक लगाती ही नहीं है उसी प्रकार ज्ञानावरणका उदय होते सन्ते प्रथमसे ही ज्ञान नहीं उपजपाता है। हाँ पुरुषार्थद्वारा उसका क्षयोपशम या क्षय करदेनेपर ज्ञान उत्पन्न हो जायेगा अतः कथचित् सत्. असत् ज्ञानोंका आवरण कह रहे कर्म सिद्ध हो जाते है ।
____ अपर आह-अभव्यस्योत्तरावरणद्वयानुपपत्तिस्तदभावात् । न च, उक्तवात् । किमुक्तमिति चेत्, आदेशवचनात् सतश्चावरणदर्शनात् भावांतराभावाच्चेति । द्रव्यादेशात् सतोरपि मनःपर्यय केवलज्ञानयोरावरणोपगमे स्याद्वदिनां नाभन्यस्य भन्यत्वप्रसंगः कदाचित्तदावरणविगमासंभवात् । पर्यायार्थादेशादसतोरपि तयोरावरणघटनादुत्पत्तिप्रतिबन्धिनोप्यावरणत्वप्रसिध्देः तयोरभव्यादर्थांतरयोरभावाच्च न कश्रिदोषः।