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होना घटित नहीं होता है । देखिये, आत्मा में मति आदि ज्ञानोंका सद्भाव माना जायेगा तो वे अपना आत्मलाभ कर ही चुके हैं। विद्यमान पदार्थ का आवरण कुछ भी नहीं हुआ, ज्ञान कुछ लड्डूके समान तो है नहीं, जो कि विद्यमान होरहा ही कटोरदान करके ढंक देने के समान आवरण माने गये, कर्म से ढंक दिया जाय । ज्ञान तो उत्पत्ति मात्र से चरितार्थ हो जाता है सांप के निकल जानेपर लकीर को पीटते रहने से कोई लाभ नहीं हैं, उल्टा संकरूप हिंसाका पान और वह बैठता है । द्वतीयपक्ष अनुसार आत्मामें ज्ञानका असद्भाव मान जायेगा तब तो उसके ऊपर आवर करता कथमपि नहीं सम्भवता है जसे क अस हो हे खर विषाण का किसी वस्त्र, डिब्बा आदि करके आवरण नहीं किया जासकता है । इस प्रकार कह चुकने पर उस कश्चित् पण्डित के प्रति ग्रन्थकार समाधानवचन को कहते हैं कि यह दोष हमारे उपर नहीं आता है । कारण कि यहां नयों को विवक्षासे आपेक्षिक कथन हैं आत्मामें चेतनागुरण अनुजीवी होकर शाश्वत रहता है । कारणों के मिल जानेपर उसकी मति, आदि परिणतियां हो सकती हैं शक्ति की अपेक्षा जैसे मट्टी मे घड़ा हैं यानी कारण मिल जाय तो मिट्टी घटस्वरूप हो सकती है । उसी प्रकार द्रव्यार्थिक नयसे आत्मा में सत् हो रहे मति आदिकों का आवरण हुआ समझ लिया जाय और पर्यायार्थिक नयसे नहीं विद्यमान हो रहे दोनोंका कर्म करके आवरण हुआ हैं जैसे कि मही में 'तत्कालीन घट पर्याय नहीं है । जैन मतृमें सर्वथा सत्कार्यवाद नहीं माना गया है और सर्वथा । असत् कार्यवाद भी नहीं अभीष्ट किया गया है, यों कथंचित् सत् होरहे और कथंचित् असत् होरहे ज्ञानोंका आवरण होना सभत्र जाता | आपने जो यह कहा था कि सत् का आवरण नहीं होता है उसपर हमारा यों कहना है कि देखिये विद्यमान हो रहे प्रकाश युक्त पुद्गल संयुक्त आकाश मण्डलक मेघपटल, आंधी, आदि करके आवरण हो रहा देखा जाता है मेघोंकी काली घटाओंसे सूर्य भी छिप जाता है भीतों या तिजोरियोंसे भूषण, रत्न, आदि छिपे रहते हैं, उसी प्रकार शक्तिरूपेण विद्यमान होरहे मति आदिकों का आवरण सम्भव जाता है। एक बात यह भी है कि मि आदिकों के सर्वथा विद्यमान हानेका एकान्त माननेपर और मति आदिकों के सर्वथा नास्तित्व का एकान्त मानने पर उनके क्षायोपशमिकपनेका विरोध हो जायेगा । वर्तमान काल के सर्वघातिस्पर्धकों का उदयाभाव यानी बिनाफल दिये हुये खिरजानारूप क्षय और आगामा कालमें उदय आनेवाले सर्वघातिनिषेकोंका वहां का वहीं उपशम बने रहना, तथा देशघाति प्रकृतियों का उदय हो जाना स्वरूप क्षयोपशमसे ही भाव उपजते हैं जो कि कथंचित् सत् और कथंचित् असत् हैं । ज्ञानोंसे सर्वथा रीते होरहे शब्द, अंधकार, काजल, सूखे तृण, घी, तेल
अष्टमोध्यायः
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