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तत्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
जाता,
कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि प्रत्येक में परली बाजूसे आवरणका संबंध करने के लिये पांचों पदों का पाठ करना पडा है । यदि ऐसा नहीं कहा जाकर केवल "मत्यादीनां " कह दिया जाता तो उन मति आदि पांचोंका एक ही आवरण है यों परिज्ञान कर लिया जो कि इष्ट नहीं है । पांच ज्ञानोंके पांच आवरण अभीष्ट है, यह प्रयोजन पांचों को कण्ठोक करने पर ही सिद्ध होता हैं । तिस कारण पांच ज्ञानावरण कर्म सिद्ध हो जाते हैं । पुनरपि वही पण्डित आक्षेप करता हैं कि पूर्वसूत्रमें ज्ञानावरण की उत्तर प्रकृतियां पांच कही जा चुकी हैं, मति आदि ज्ञान पांच भी कहे गये हैं, तिस कारण ज्ञानावरण कर्म की पांच संख्या की प्रतीति हो जायेगी । फिर " मत्यादीनां " ऐसा लघुसूत्र छोडकर व्यर्थ में इतना लम्बा सूत्र करने की क्या आवश्यकता है? आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि मतिज्ञान आदि प्रत्येक के पांच पांच भेद हो जानेका प्रसंग आजावेगा उक्त सूत्रके पांच शब्दों को मत्यादि प्रत्येक में पढदिया जावेगा । मतिज्ञान के आवरण पांच श्रुतज्ञानके आवरण पांच इत्यादि रूपसे प्रत्येक में पांच पदका संबंध हो जानेसे प्रत्येक के पांच पांच आवरण हो जानेका प्रसंग आ जाता है । सूत्र में मतिश्रुत, अवधि, मन:पर्यय, और केवल इन प्रत्येक पदों का ग्रहण हो जानेपर तो इन उक्त पदों की सामर्थ्य से ही अभीष्ट अर्थ को समीचीन ज्ञप्ति की जा सकती है । यथाक्रम की अनुवृत्ति अनुसार पांच पदका मति, श्रुत आदि समस्त पांचों के साथ संबंध किया जायेगा । गम्भीर महान पुरुष व्यर्थ की बातें नहीं बका करते हैं । कोई नका अभिलाषी दीन पुरुष यदि किसी महामना उदात्त धनिक के निकट याचना करने के लिये जाता है धनिक पुरुष यदि कारणवश उसको निषेध भी कर दे पुनः कुछ समयतक दीन पुरुष के साथ वह सेठ यहां वहां की बातें करता है कि भाई तुमको क्या आवश्यकता है ? तुम कहां रहते हो ? तुम्हारे कितने बालबच्चे हैं ?, इत्यादिक व्यर्थसी प्रतीत हो रही बातें भी प्रयोग सिद्धि की घटक है । आज नहीं तो कल उस दीनयाचक की अभीष्ट सिद्धि होयगी, पर होयगी । अतः अतिसंक्षिप्त कहने की टेव रखने वाले का कदाचित् अधिक कह देना व्यर्थ नहीं जाता है । वह कुसीद ( व्याज ) सहित मूल को चुका देता है ।
कश्विदाह-मत्यादीनां सत्त्वासत्त्रयोरावृत्यभाव इति तं प्रत्याह, न बात्रादेशवचनात् सतयावरणदर्शनात् नभसोंभोधरपटलवत् । मत्यादीनां सवैकान्ते वासवैकांते मायोपशमिकत्वविरोधात् कथंचित् सतामेवावर रणसंभवः ।
यहाँ कोई सांख्य या नैयायिक मत अनुसार शंका उठाता है कि मति आदिकों का विद्यमान होना माननेपर अथवा आत्मामें अविद्यमान होना मानने पर दोनों पक्षो में आवरण