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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
नामकर्मका वचन किया जाता है क्योंकि उस आयुःके उपयकी अपेक्षा रख रहा हो प्रायः गति आदि नाम फर्मका उदय देखा जाता हैं "आयुबलेण अवट्ठिदिभवस्स इदि णाम आउपुव्वं तु भवमस्सिय रगीचुच्चं इदि गोदं णामपुव्वं तु" उस नाम कर्मके पश्चात् गोत्र कर्मका निरूपरण करना उचित ही था। कारण कि नामकर्मके विपाक अनुसार शरीर आदिके लाभको प्राप्त कर चुके ही जीव के गोत्रको निमित्त मानकर हुए उच्च नीच, आचरण अनुसार शुभ अशुभ शब्दों करके उच्चारण किये जानेकी प्रकटता होती है तिस कारण नामके पीछे गोत्र कह दिया गया है। आयुः,नाम, और गोत्रों का क्रम बडा अच्छा है । सबके शेषमे बचे रहनेसे अन्तरायका कथन अंतमें किया गया हैं। अन्त राय कर्म का प्रतिपक्ष वीर्य है शक्तिरूपवीर्य सभी जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्यों में पाया जाता हैं जैसे जीवमें अनन्तानन्त वीर्य है उसी प्रकार पुद्गलोंमें भी अनन्तानन्त सामर्थ्य हैं । जीव पुद्गलोंकी गति के सहकारी धर्मद्रव्य और सभी द्रव्योंकी स्थितिमें सहकारी अधर्म द्रव्यकी सामर्थ्य छोटो नहीं है भनन्त है। कालपरमाणुयें तो अनन्त सामर्यों की धार रहीं प्रतीत हो ही रहीं हैं। "परिशुद्धप्रतिभानां सुलभमेतत्" यों "जीवाजीवगदमिति चरिमे" अन्तराय पीछे कहा गया है। इस प्रकार उक्त सूत्रके द्वंद्वसमास गर्भित पदों के यथाक्रमसे निरूपण का बीज कह दिया है।
अथोत्तरप्रकृतिबंध प्रतिपिपादयिषुस्तत्संख्याभेदान् सूत्रयन्नाह;
पहिला मूल प्रकृतिबंध आठ प्रकारका कहा दिया गया हैं अब दूसरे उत्तर प्रकृतिबंध की शिष्यों को प्रतिपत्ति करानेकी अभिलाषा रखते हुवे सूत्रकार महाराज उस उतर प्रकृतिबंधके सख्या भेदोंकी सूत्ररचना करते हुये कह रहे हैं। पंचनवव्धष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंश व्दिपंचभेदा यथाक्रमम् ॥५॥
पांच भेदवाला ज्ञानावरणीय कर्म है, नौ प्रकारवाला दर्शनावरण कर्म हैं। वेदनीयके दो भेद हैं, अठ्ठाईस प्रकारोंवाला मोहनीय हैं, आयुःकर्मके चार भेद हैं । नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियां व्यालीस प्रकार हैं गोत्रकर्म द्विविध है, अन्तराय कर्मको उत्तर प्रकति गणना पांच है । आठ प्रकार प्रकृतिबंधके यथाक्रमसे ये पांच, नौ आदि विकल्प हो जाते हैं, यह इस सूत्रमें कहा गया है।
___ पंवादिपंवान्तानां द्वंद्व र्वोन्य पदार्थनिर्देश :। द्वितीयग्रहरणमिति चेन्न परशेषात्सि देः । पूर्वत्राद्यवचनात् इह हि परिशेषादेव द्वितीयउत्तरप्रकृति बंधं इति सिध्यति । भेदशब्द: प्रत्येक परिसमाप्यते । यथाक्रमं यथानुपूर्व तेन ज्ञानावरणं पंचभेदमित्यादिसंबंध: परिपाट्या द्रष्टव्यः । एतदेवाह;