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तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
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इत्यादि व्याख्यान है । भुजाकार आदिको यों समझलिया जाय " अप्पं बंतो बहु बंधे बहुगादु अपबंधेवि, उभयत्थ समे बंधे भुजगारदी कमे होंति पहिले थोंडी प्रकृतियोंको बांधते हुवे पुनः बहुत प्रकृतियों के बांधनेपर भुजाकार बंध है, जैसे कि गजदन्त के समान अंगुलियों, पोंचा कोनी, बाहोंपर उत्तरोत्तर मोटी होती जारही भुजाका आकार है, उसी प्रकार ग्यारहवं, गुणस्थानसे उतरकर दशवें, नौमे आदि गुणस्थानोंमें अधिक अधिक कर्मों के बंधनेकी अपेक्षा भुजाकार बंध है । पहिले बहुत प्रकृतियोंका बंध करते हुवे पुनः थोडी संख्यावाली प्रकृतियों को बांधने लगजाना अल्पतर बध हैं जैसे कि पहिले गुणस्थान में दर्शनावरणको नौ प्रकृतियां बंधी थीं किन्तु दूसरे में स्त्यानगृद्धि आदि तीनकी व्युच्छित्ति हो जानेपर तीसरे आदिमें छह प्रकृतियां बंधने लग जाती है आठवे के प्रथम भाग में निद्रा और प्रचला की बंधयुछित्ति हों जानेपर आगे चार ही दशवें गुणस्थानतक बंधती है यों वह अल्पतरबंध हुआ समझा जायेगा । पहिले और पीछे दोनों कालों मे समानबंध होने पर अवस्थितबंध हैं जैसे कि दशवें तक चक्षुर्दर्शनावरण का बंध अवस्थित हैं ।
प्रकृत्यादिभेदाच्चतुर्विधः द्रव्यादिभेदात् पंचविधः । षड्जीवनिकायभेदात् षोढा । रागद्वेष मोहक्रोधमान माया लोभ हेतुभेदात् सप्तविधः । ज्ञानावरणादिविकल्पादष्टविधः एवं संख्या: विकल्पाः शब्दतो योजतीया । च शब्दाध्यवसायस्थानविकल्पाद तख्येयाः प्रदेशस्कन्ध परिणामभेदादनन्ता: ज्ञानावरणाद्यनुभवाविभागपरिच्छेदापेक्षया वा ।
प्रकृति आदि यानी प्रकृतिबंध स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध के भेद से बंध चार प्रकार का हैं भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित, और अवक्तव्य भेदोंसे भी बंधके चार विकल्प हो सकते हैं । तथा द्रव्य आदि यानी द्रव्य, क्षेत्र काल, भद, भाव इन भेदों से बंध के पांच प्रकार है । द्रव्य क्षेत्र आदिका निमित्त पाकर वह कर्मबंध स्थूलरूप से पांच प्रकार का परिणम जाता है । छह जीवनिकायों के भेदसे स्वामियोंकी अपेक्षा बंध छह प्रकार का भी कहा जा सकता है । बंधके हेतु हो रहे राग, द्वेष, मोह, क्रोध मान, माया, लोभ, इन सात, भेदोंसे बंध सात प्रकार का हैं निमित्त के भेदसे नैमित्तिकमें भेद हो ही जाता है । ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि प्रकृतियोंके भेदसे आठ प्रकार का बंध प्रसिद्ध ही है । नौ पदार्थों के प्रतिकूल कषायों अनुसार बंधू के नौ भेद भी हो सकते है । दशधर्मो के विपरीत आचरण करनेपर ये कर्मबंधों की दश जातियां भो कही जा सकती है । जगत् में शद्व संख्यात ही हैं यों बंधके शब्दों की अपेक्षा संख्याते विकल्पोंकी योजना करलेनी चाहिये । “एकादि संख्येयविकल्पाश्च" यह पडे हुये च शब्द करके कर्मके असंख्यात और अनन्त भेद भी कहे गये समझलेने चाहिये