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अत्यधिक विकल्प है, जगतमे शब्द संख्यात ही है, कालाणुओं आदिके बरावर असंख्याते शब्द नही हैं, और जीव, पुद्गल, द्रव्योंके अनन्त समान अनन्तानन्त भी नहीं है । असंख्याते द्वीप समुद्र या देवदेवियोंके अथवा त्रिकालसम्बधी मनुष्यों के नाम सब पुनरुक्त हैं, एक एक नामको धार रहे असंख्ताते पदार्थ हैं यों शब्द जब मध्यम संख्यात ही है तो वाचक शब्दोंकी अपेक्षासे प्रकृतिबंध के एक, दो, तीन, चार आदि संख्याते विकल्प हो जाते हैं, उन संख्यात भेदों में सबसे पहिला एक भेद तो सामान्यरूपसे कर्मबंध एक ही है यहाँ विशेष भेदोंकी विवक्षा नहीं कही गई है । जैसे कि सैनिक, घोडे, रथ आदि भेदों की विवक्षा नहीं कर समुदायकी अपेक्षा एक सेना शब्द प्रवर्त रहा है अथवा अशोकवृक्ष, तिलकवृक्ष, मौलसिरी, वंबूल, ढाक, आदि वृक्षोंकी नहीं अपेक्षा कर सामान्य आदेशसे वन एक कहदिया जाता है । "सामण्णजीवतसथावरे सु"यों सम्पूर्ण जीवों को भी तो सामान्य से एक जीवसमास में गर्भित करलिया जाता है, तथा वहो कर्मबन्ध पुण्यकर्म और पापकर्म के भेदसे दो प्रकारका माना गया है, जैसे कि एक हो सेनाको स्वामी यानी अफसर और भृत्य यानी सेवक ( सिपाही) के भेदमे दो ही भेदोंमे गतार्थ कर लिया जाता है । यहाँ अडसठ पुण्यप्रकृतियाँ और सौ पाप प्रकृतियाँ इन प्रभेदों की अपेक्षा नहीं की गई है । प्रकृतिबंध तीन प्रकार का भी है अनादिसान्त १ अनादिअनन्तर और सादिसान्त ३
अष्टमोऽध्यायः
अथवा भुजाकार, अल्पतर, और अवस्थित भेदसे भी वर्मबंध तीन प्रकार हैं । अर्थात् किसी मोक्षगामी भव्यजीवका अनादिकालसे प्रवाहरूपेण चला आरहा कर्मबंध क्षपक श्रेणी के पश्चात् सान्त हो जाता है अथवा तेरहवे गुणस्थान के अन्त में योग नष्ट हो जानेपर सातावेदनीय कर्म के बंध का भी अन्त हो जाता है । दूसरा अभव्य जोत्र या दूरभव्य जीवके अनादि अनन्तकाल तक धाराप्रवाह हो रहा अनादिअनन्त बंध है । उपशम श्रेणीसे गिरकर नीचले गुणस्थानोंमे हुआ बंध सादिसान्त हैं अथवा व्यक्तिरूपसे सभी कर्मोंका बंध सादि सान्त हैं । कोई भी कालमे पाया जारहा कर्मपिण्ड सत्तर कोटा कोटी सागर कालसे अधिक समयों तक नहीं टिक सकता हैं "सादी अबंधबंधे सेढि अगारूढगे अरणादीहु, अभव्व सिद्धम्मि धुवो भवसिध्दे reat बंधो" इस गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा अनुसार अबंध होनेपर पुनः कर्म के बंधने को सादिबंध कहा गया है । जैसे किसी जीव के दशवे गुणस्थानतक ज्ञानावरणकी पांच, दर्शनावरण की चार, अन्तराय की पांच, यशस्कोर्ति और उच्च गोत्र इन सोलह प्रकृतियों का बंध होता था किन्तु वह जीव ग्यारहवे गुणस्थानमे पहुंच गया वहाँ इनका बंध नहीं हुआ पश्चात् ग्यारहवें से गिरकर पुनः दशवेंमे आकर ज्ञानावरण आदिका बंध करने लग गया ऐसा बंध सादि कहलाता है तथा श्रेणीपर नहीं चढ रहे जीवके अनादिबंध समझा जायेगा