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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
अनेक सुख दुःख आदिकों का अनुग्राहक हो जाता है। यदि यहां कोई यों आक्षेप करे कि इन्द्रियों की वृद्धि तो एक ही है अतः एक दूध या घीसे एक ही वृद्धिस्वरूप कार्य हुआ ग्रन्थकार कहते हैं, कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि सूक्ष्मदृष्टी से विचार करनेपर प्रत्येक इन्द्रिय को अपेक्षा वृद्धि न्यारी न्यारी है, जिस प्रकार इन्द्रियां भिन्न हैं उसी प्रकार उनकी वृद्धियां भी पृथक पृथक् है,घो खानेसे आंखमे नसों को पृटी होते हुये दर्शनशक्ति दृढ हो जाती है जिम्हा को रूक्षता दूर होकर रसग्रहणशक्ति स्थिर हो जाती है, इसी प्रकार स्पर्शन, घ्राण श्रोत्रों के उपकरणोंकी पुष्टि हो जाती है, घृत से पावोंके तलका मर्दन करने पर भी चक्षुषों को लाभ होकर शिरःपीडा दूर हो जाती हैं, यों भिन्न जातिबाले पार्थिव घोसे अतुल्य जाति वाले तेजोनिमित चक्षुः वायुनिर्मित स्पर्शन आदिका अनुग्रह होना जैसे अनुभूत हो रहा है उसी प्रकार भिन्न जातोय अवेतन कार्मण पुद्गलद्रव्य करके अनुन्ध जातोय चेन जोवद्रव्यता अनुग्रह हो जाने की सिद्धि हो जाती है, तिस कारण चेतन आत्माका अचेतन कर्म अनुग्रहण करनेवाला सिद्ध हो जाता है आत्मपरिणतियोंने ही कर्म को तिस प्रकार अपने सुख दुःख का अनुग्राहरुपनसे परिणमन करालिया था, जैसे कोई पुरुष अपने स्त्री पुत्र, भृत्य आदि को वैसी वैसी टेव बनाकर उनसे स्वयं सुख दुःख उठाता रहता है। रजस्वलास्त्री स्वयं अपने शरीर के विकारसे अशुद्ध हो जाती हैं अथवा जीवित शरीर ही स्वपरिणतियोंके अनुसार वात, पित्त कफ, सम्बधी दोषों को या गुणोंको बनाकर अथवा रस, रुधिर हड्डो आदिका निर्माणकर पुनः उन बंध गये विजातीय पुद्गलोंसे अनेक प्रकार दुःखों या सुखोंको भोग ।। रहता है दन्तवरण (पायोरिया)रोग से शरीर मे हो दुषितविष बनता है और उसीसे शरीर में दुव विकार उपजते हैं पुनःदूषित विष बनता है उससे जोव दुःख भोगता है । उसी प्रकार कर्मनोकर्मों करके मह जीव अनेक निग्रह, अनुग्रह प्राप्त करता रहता हैं।
कितावानेव प्रकृति बंधविकल्पो नेत्याख्यायते--एकादिसंख्येयधिकल्पश्न शब्दतः तत्रैकस्तावत्सामान्यात् कर्मबंधो विशेषाणामविवक्षितत्वात् सेनावनवत् । स एव पुण्यपापभेदाद्विविधः स्वामिभृत्यभेदात् सेनावत् । त्रिविधश्चानादिःसान्तः, अनादिरनन्तः सादिःसान्तश्चेति, भुजाकाराल्पतरावस्थितभेदाद्वा।।
यहाँ कोई संक्षेप रुचिवाला शिष्य प्रसन्नतावश प्रश्न उठाता है अथवा विस्तार रुचिवाला विनीत जिज्ञासावश पूंछता है कि क्या पहिले प्रकृतिबंध के विकल्प उक्त आठ संख्या के परिमाण को लिये हुये इतने ही हैं ? ग्रन्थकार कहते है कि इस शंकाका उत्तर "नहीं" यह बखाना जाता है अर्थात् इतने ही आठ विकल्प नहीं हैं। किन्तु प्रकृतिबंधके