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अष्टमोऽध्यायः
स्थिति पड़ जाती है, अथवा खाया, पिया गया पदार्थ उदरमे जाकर कितनी देर तक ठहर कर जठराग्निद्वारा परिपक्व होता हुआ निर्जीर्ण हो जायेगा उतना उसका स्थितिकाल समझा जायेगा। ज्ञानावरणादि मे आत्माको रसविशेष देने की सामर्थ्य को अनुभवबंध कहते हैं, खाये, पिये गये अन्न, दूध आदि मे भी शरीरपरिणति अनुसार रसविशेष पड जाते हैं। कर्मवर्गणायें इतने परिणाम को लिये हुये बंध गई हैं, इस प्रकार परमाणुओं की गणना का परिमाण लिये हुये बंधना प्रदेशबंध है । फोक पदार्थ और सघन पदार्थ के खाने पीने मे परमाणुओं की गणना अनुमित हो रही दृष्टांत कही जा सकती हैं । हजार योजन के राघव मत्स्य के योग बडा है अतः कर्मवर्गणायें अधिक खिंचती हैं और तन्दुल मत्स्यके छोटा योग होनेसे परमाणुये थोडी आती हैं, रस अधिक पडता है, स्थूलरूपसे गिनने पर वे परमाणुये सिद्ध राशिके अनन्तवें भाग और अभव्य राशिसे अनन्तगुणी हैं फिर भी बडे मत्स्यसे तंदुलमत्स्य के सद्ध कमे परमाणु प्रदेश थोडे हैं, किन्तु अनुभाग शक्ति दोनों के बांधे गये कर्मों मे एकसी पड़ती हैं, अतः दोनो ही सातवें नरक जाते हैं। वस्तुतः अनुभागबंध ही शक्तिशाली है, -एक इन्दिय, द्वीन्द्रिय जीवों मे कर्मोंकी स्थिति थोडी भी पड़ती हैं और संज्ञीजीवके कर्मस्थिति अधिक पडती हैं, तथापि अनुभाग शक्ति की तीव्रतासे एकेंद्रिय, विकलत्रय जीवों के महान सक्लेश बना रहता है । ये चारों बंध एक ही समय मे हो जाते हैं।
अकर्तरीत्यनुवृत्तेरपादानसाधना प्रकृतिः भावसाधनौ स्थित्यनुभवी, कर्मसाधनः प्रदेशशब्दः । प्रकृतिः स्वभाव इत्यनर्थान्तरं, स्वभावाप्रच्युतिः स्थितिः, तद्रसविशेषोनुभवः, इयत्तावधारणं प्रदेशः । विधिशब्दः प्रकारवचनः । तस्य विधयस्तद्विधयो बंधप्रकाराः प्रकृत्यादय इत्यर्थः ॥ तदेवाह,
प्रकृति शब्दको यों साधु व्युत्पन्न कर लिया जाय कि प्रक्रियते अस्याः इति प्रकृतिः प्र उपसर्गपूर्वक डुकृञ् करणे धातुसे "स्त्रियां क्तिः" इस सूत्र करके क्ति प्रत्यय कर लिया जाय "अकर्तरि चकारके संज्ञायां" इस सूत्र के अकर्तरि पदकी अनुवृत्ति हो जानेसे अपादान मे प्रकृति शब्दको साध लिया जाता हैं । स्थिती और अनुभव शब्द का भाव में प्रत्यय कर साधन कर लिया जाय।"ठागति निवृत्तौ" धातु से भाव मे क्तिप्रत्यय कर स्थिति शद्व बन जाता हैं, और अनु उपसर्ग पूर्वक भूधातुसे भावमे अप्प्रत्यय कर अनुभव शब्द को साध लिया जाय, प्रदेश की कर्म मे घञ् प्रत्यय कर सिद्धि करली जाय । प्रकृति और स्वभाव इन दोनोंका एक अर्थ ही है, भिन्न अर्थ नहीं हैं। जैसे कि नींबकी प्रकृति तिक्त (कड़वी) है, गुडका स्वभाव मीठा है, उसी प्रकार ज्ञानावरण की प्रकृति स्व और अर्थ को नहीं जानने देना है । दर्शनावरण कर्म की प्रकृति अर्थोकी सत्ता का आलोकन नहीं कराना है । साता, असाता वेदनीय कर्म को