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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
है। बात यह कि गुण ही तो द्रव्य हैं, गुणोंका द्रव्य के साथ तादात्म्य है, उपरिष्ठात् हो रहा बंध नहीं है जो कि संयोग को मूल कारण मानकर बंध हुआ करता है।
अन्यथा सकषायत्वप्रत्ययस्य विरोधतः । संसारिणां शरीरादिसंबंधस्यैव हानितः ॥१२॥
यदि जीवका द्रव्य कर्म और भाव कर्मों के साथ बंध जाना नहीं मानकर अन्य प्रकारोंसे आत्माको व्यापक, निर्लेप, कूटस्थ माना जायेगा तो आत्माके क्रोधीपन, मानीपन, शोकसहितपन, स्त्रीवेदीपन आदि कषायसहितपन का स्वसंवेदन स्वरूप ज्ञान होनेका विरोध हो जायगा ऐसी दशामे संसारी जीवोंके शरीर इन्द्रिय आदि के साथ संबंध हो जाने की हानि हो जावेगी। शुद्ध आत्माके शरीर आदिका संबंध कथमपि नहीं हो सकता है, जैसे कि आकाश द्रव्य के कोई उपाधियोंका एकरसवाला संबंध नहीं हैं अतः सिद्ध हो जाता है कि कषायसहित होने के कारण यह संसारी जीव विजातीय कर्म योग्य पुद्गलोंका ग्रहण करता रहता है वही बंध है।
सोयं सामान्यतो बंधः प्रतिपादितस्तत्प्रकारप्रतिपादनार्थमाह;
वह प्रसिद्ध हो रहा यह बंध सूत्रकारने उक्तसूत्रद्वारा सामान्य रूपसे समझा दिया हैं, ऐसी दशामें शिष्यका उस बंधके विशेष भेद प्रभेदोंको जानने की इच्छा उपजना सुलभ साध्य है, अत: बंधके प्रकारोंकी प्रतिपत्ति कराने के लिए सूत्रकार अगले सूत्र को कह रहे हैं।
प्रकृतिस्थित्यनुभाग(भव)प्रदेशास्तद्विधयः ॥३॥
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार उस बंध के प्रकार हैं, अर्थात् योगों अनुसार आ रही कार्मण वर्गणाओंमे आत्मपरिणाम को निमित्त पाकर हुई जो अर्थ को नही जानना, अर्थका आलोचन नहीं कर सकना, सुख, दुःखका वेदन कराना, आदि प्रकृतियोंके रूपमे बंधजाना प्रकृति बंध हैं । खाये, पिये गये खाद्य, पेय द्रव्यों के शारीरिक परिणतियोंको निमित्त पाकर जैसे रस, रुधिर, आदि परिणाम हो जाते हैं, उसी प्रकार कार्मण पुद्गलों के ज्ञानावरणादि प्रकृतिवानों का आत्मा के साथ कर्मबंध हो जाता है, उन अर्थोको नहीं जानने देनेवाले आदि कर्मस्वभावों की जबतक च्युति नहीं होय वह स्थिति बंध है। जैसे कि अन्न, पेय, के बन गये रुधिर मसि, हड्डी, आदि की अनेक दिनों तक ठहरने की