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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
मुक्ति मे जीवकी पुनः आवत्ति स्वीकार करते है, किन्तु एकबार मुक्त हो जानेपर योग्य कषायोंका सर्वथा अभाव हो जाने से पुन: कर्मबंध नहीं हो पाता है यह जैन सिद्धांत है । अतः कषायसहितपन से पहिले शुद्ध हो रहे इस वाक्यका अर्थ कषाय की अपेक्षा या जीवके विशेष विशेष कर्मों बं । के पहिले हुई आंशिक विशुद्धि की अपेक्षा सुघटित हो सकता है। श्रुतसागर सूरि तो कहते हैं कि " कश्चिदाह- आत्मा मूर्तिरहितत्वादकरः पापरहितः कथं कर्म गृण्हाति कथं बंधवान् भवति इति चर्चितः सन्नुमास्वामिदेवः प्राणधारणायुसंबंधसहितो जीवः कर्म गृहा त नत्वायुःसंबंध विना कर्मादत्ते इति सूचनार्थं जीवनाज्जीवस्तेन जीव शद्वस्य ग्रहणं चकार आयुसंबंधविरहे जीवस्यानाहारकत्वात् एकद्वित्रिसमयपर्यन्तं कर्म नादत्ते जीवः "एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः इति वचनात् ॥ इससे ध्वनित होता है कि विग्रह गतिमे एक,दो,तीन समय तक जीव कर्मोको ग्रहण नहीं करता है, किन्तु जैन सिद्धांतमे अनादिकालसे तेरहवे गुणस्थान तक निरंतर कर्मोका ग्रहण करना इष्ट किया गया है, विग्रहगति मे मात्र नोकर्मोका ग्रहण नहीं है, कार्मणकाययोगद्वारा कर्मोंका ग्रहण तो हो ही रहा है, भुज्यमान आयुका वियोग हो जानेपर उसी क्षण ध्यमान बआयुका उदय आ जाता है, पूर्वभव की आयुके वियोग और बांधी जा चुकी उत्तर भवकी आयुःके प्रथम निषेकके उदय का एक ही समय है, जबतक संसार है तबतक एक समय के लिये भी आयुःकर्म का वियोग हो जाना असंभव है। सर्वार्थसिद्धि, राजवात्तिक, गोम्मटसार में विग्रह गति के एक, दो, तीन, समयों मे कर्मोंका ग्रहण तो निरंतर हो रहा स्वीकार किया है, अतः श्रुतसागर स्वामोके अभिप्रायको बे ही जाने । यहां श्री विद्यानन्द आचार्यने "ततः पूर्वं शुद्धस्य तदसंभवात् जो लिखा है, वह अपेक्षाओं से सिद्ध किया जाता है । पुद्गल तो शुद्ध होकर पुनः स्वकीय स्पर्श गुणकी स्निग्ध रूक्ष पर्यायों के अविभाग प्रतिच्छेदों की द्वयधिकतानामक अन्तरंग कारणवश अशुद्ध हो जाता है, किन्तु जीव एकबार भी शुद्ध होकर पुनः कषाय आदि विभाव परिणतियों को नहीं धारता है ऐसा जिनागम है।
तद्रव्यकर्मभिबंधः पुद्गलात्मभिरात्मनः । सिद्धो नात्मगुण रेवं कषायैर्भावकर्मभिः ॥११॥
तिसकारण इस प्रकार सिद्ध हो जाता है कि आत्माका पुद्गलस्वरूप द्रव्यकर्मों के साथ बंध हो जाना सिद्ध है, जो कि द्रव्य बंध कहा जा सकता है इसी प्रकार भावकर्मस्वरूप कषायों के साथ भी आत्मा का बंध हो रहा है, जो कि भावबंध कहा जाता है । किन्तु नैयायिकों के यहां अपने ही गुण मान लिये गये अदृष्ट आदि गुणों के साथ आत्माका बंध नहीं