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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
कर्मणः सकषायत्वं जीवस्येति न शास्वतं सहेतुकस्य कौटस्थ्यविरोधात् कुटकादिवत् ॥८॥ ततो न मुक्त्यभावो नुः कुतश्चित्कर्मणः क्षये। सकषायत्वविध्वंसाविध्वंसकृतसिद्धितः ॥६॥
कर्मोंसे यों जीवके कषायसहितपना हुआ वह शाश्वत यानी सर्वदा ठहरनेवाला नहीं है, क्योंकि हेतुओंसे सहित हो रहे कादाचित्क कार्य के कूटस्थपन का विरोध है । जैसे कि कारणोंसे उपजे घर, पोथी, वृक्ष, आदिक पदार्थ अनादि अनन्त सदा ठहरनेवाले नहीं हैं, तिस कारण किन्ही संवर, निर्जरा आदि कारणों से कर्मोंका क्षय हो जानेपर जीव के मुक्तिका अभाव नहीं हो सकता हैं। कारण कि कपायसहितपन के विध्वंस द्वारा किये गये मुक्तिपन की सिद्धि हैं और सकषायपन का जबतक विध्वंस नहीं किया गया है, तबतक जीव के मुक्तिका अभाव याने संसार की सिद्धी हो रही है अर्थात् . व्यक्तिरूपसे सभी कर्मोंका सम्बन्ध सादि सान्त है और उन कर्मोके उदय से हुआ कषायसहितपना भी कादाचित्क है सार्वदिक नहीं है। अतः संवर निर्जराओं एवं अन्य पुरुषार्थों करके डेड गुणहानि प्रमाण संचित कर्मोंका क्षय कर देने पर जीव के मोक्ष हो जाती हैं। यदि प्रकृति (कर्मों) के कषायसहितपना माना जायेगा या जीवके कषायसहितपना नित्य माना जायेगा तो जीव को मोक्षलाभ नहीं हो सकेगा। मोक्षका प्रधान बोज सकषायत्व का क्षय है और संसार का मुख्य कारण कषायसहितपन की लम्बी लेज बिछी रहना हैं।
जीवो हि कर्मणो योग्यानादत्ते पुद्गलान स्वयं । सकषायस्ततः पूर्वं शुद्धस्य तदसंभवात् ॥१०॥
कषायसहित जीव ही कर्मके योग्य हो रहे पुदगलोंको स्वयं ग्रहण करता है, उस कषायसहितपनसे पहिले शुद्ध हो रहे जीवके उस कर्मग्रहण करनेका असंभव हैं अर्थात् ग्यारहवे गुणस्थान से क्रम से उतर कर जीव दशवें, छठे, चौथे या पहिले गुणस्थानोंमे सकषाय हो रहा कमों को बांधने लग जाता है । जैन संप्रदायमे शुद्ध हो चुके मुक्त जीव के पुनः कर्मोका ग्रहण करना या संसार मे लौटना नहीं माना गया है। आर्यसमाजी पण्डित