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अष्टमोऽध्यायः
जीवस्य बंध इति वा सकषायत्वतोन्यथा। तस्य मुक्तात्मवत्तत्त्वानुपपत्तेः प्रसिद्धितः॥५॥
अथवा उक्त सूत्रके आगम वाक्य का यों भी परार्थानुमान प्रयोग बना लिया जाय कि कषायसहितपना हो जाने के कारण जीव के बंध हो जाता है, अन्यथा यानी कषायसहितपनसे बंध की व्यवस्था यदि नहीं मानो जायेगी तो मुक्तात्माके समान उस संसारी जीवके उस बंधसहितपनकी उपपत्ति नहीं होनेकी प्रसिद्धी हो जायेगी, किन्तु मुक्तात्माके समान संसारो जोव तो बंधरहित नहीं हैं, अतः क्रोधादि कषायों से सहितपना ही जीव के बद्ध हो जानेका अंतरंग बीज है।
सकषायत्वमध्यक्षस्वसंवेदनतः स्वयं कोपबानहमित्येवं रूपात सिद्धं हि देहिनां ॥६॥
उक्त अनुमान मे पड़ा हुआ सकषायपना हेतु तो स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध है। जब कि मैं क्रोधी हूं, मैं लोभी हूं: इत्यादि एवं स्वरूपवाले स्वसंसेदन प्रत्यक्ष से शरीरधारी जीवोंको कषायसहितपनकी स्वयं सिद्धी हो रही है, तो प्रत्यक्ष सिद्ध हो रहे हेतु से कर्मादान साध्य की सिद्धि हो जाती है, यहां सकषायपना ज्ञापक हेतु है और कारक हेतु भी हैं।
प्रधानं सकपायं तु स्यान्नैवाचेतनत्वतः । कुम्भादिवत्त तो नेदं सबंधमिति निर्णयः ॥७॥
कपिल मतानुयायी कहते हैं कि जीवके कषायें नहीं होती हैं, किन्तु त्रिगुणात्मक प्रकृति के राजस, तामस कषायें जानी जा रहीं हैं । इस पर आचार्य कहते हैं कि अव्यक्त प्रधान तो कषायसहित नहीं हो सकेगा (प्रतिज्ञा) अचेतन होनेसे (हेतु) घट, पट, आदि के समान ( अन्वयदृष्टांत )। तिसकारण यह प्रधान तो बंधसहित नहीं है, यो निर्णय कर दिया जाता है ।