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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
परिपाक होता है, और कंकड, कांटा, दुर्गन्ध आदि पुद्गल पदार्थों से असाता वेदनीय कर्मका विपाक होता है । अग्नि, बूरा आदि पुद्गलों से ही स्पर्शान्तर या रसान्तर हो ...सकते हैं, आकाशसे दूध के रस, रूप, शब्द नहीं बदलते हैं, पुद्गलों करके पुद्गलों में परिपाक हो सकता है, आत्मगुण या अन्य अमूर्त पदार्थोमे नहीं ! अतः सिद्ध है कि कर्म पुद्गलस्वरूप ही है, इस बातको हम पहिले भी कह चुके हैं। दुसरे अध्यायके "अप्रतीघाते" सूत्रका व्याख्यान करते हुये “ कर्मपुद्गलपर्यायो जीवस्य प्रतिपद्यते, पारतन्त्रनिमित्तत्वात् कारागारदिवंधवत् " यों कर्मको पुद्गल उपादान कारणों का उपादेय पर्यायपना स्वीकार किया है। चौथे अध्यायके उपान्त्यमें "सूक्ष्मो भूतविशेषश्चेद्वयभिचारेण वजितः, तध्देतुर्विविधं कर्म तन्नः सिद्ध तथाख्यया" इसके द्वारा भी कर्मों के पुद्गलपने का आभास मिलता है, इस कारण सिद्ध हो जाता है कि कर्म बननेके योग्य कार्मण वर्गणा स्वरूप कोई कोई पुद्गल ही हैं यों सूत्रोक्त सिद्धांत पुष्ट हो जाता है।
तानादत्ते स्वयं जीवः सकषायत्वतः स तु । यो नादते प्रसिद्धो हि कषायरहितः परः॥३॥ सकषायः सकर्मत्वाज्जीवः स्यात्पूर्वतोन्यतः। कषायेभ्यः सकर्मेति नान्यथा भवभागयं ॥४॥
कषायसहित होनेसे स्वयं वह जीव ही तो उन कर्मोको ग्रहण करता है, जो जीव कर्मोको ग्रहण नहीं करता है, वह उस संसारी जीवसे न्यारा उत्कृष्ट आत्मा नियमसे कषायरहित प्रसिद्ध है (व्यतिरेकव्याप्तिपूर्वक अनुमान) पूर्व समयोंमे बांधे गये अन्य कर्मोंसे सहित होने के कारण वही जीव कषाय उदय होनेपर वर्तमानमे कषाय सहित हो जावेगा और फर इन कषायोंसे कर्मोको बांधकर कर्मसहित हो जावेगा । जीव के इस प्रकार भावकमसे द्रव्यकर्म, और द्रव्यकर्म से भावकर्मसहितपने को व्यवस्था हो रही है। अन्य प्रकारोंसे माननेपर यह जीव संसार को सेवनेवाला नहीं हो सकता है । अर्थात् अदृष्ट को आत्मा का गुण माननेपर या आत्मा को कमल दल के समान निर्लेप मानने पर जीवके संसार परिभ्रमण होना नहीं बन सकता है, जो कि सभी वादी, प्रतिवादियों को मानना चाहिये ।