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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
और मध्यम तीन प्रकार अवगाहनाओं के होनेपर जीवोंकी सिध्दि हो रही है । चरम शरीरसे कुछ न्यून हो जाना प्रसिध्दही है । स्वकीय आत्माकै व्यञ्जन पर्याय स्वरूप प्रदेशमें अथवा उतने प्रदेशोंको व्यापनेवाले आकाश स्वरूप क्षेत्र में जीवोंकी अवगाहना भले प्रकार प्रवर्त रही है । दशवें अन्तरके खाते में यों विचार किया जाय कि सिध्दिको प्राप्त हो रहे मनुष्यों का जघन्य रूपसे अन्तर नहीं पडे तो दो समयतक न पडे । किसी भी पदार्थका छोटेसे छोटा अनन्तर ( यानी व्यवधान नहीं पडना ) दो समयही हो सकता है । फिर उत्कृष्ट रूपसे इन सिद्धोंका अव्यवधान पडे तो आठ समय पड सकता है, आठ समयतक बराबर व्यवधान रहित सिद्ध होते रहते है । पश्चात् अवश्य अन्तर पट जावेगा यानी कुछ देरके लिये सिद्धोंका उपजना बन्द हो जावेगा । तथा सिद्ध होंनेवालोंका यदि जघन्य रूपसे अन्तर पडे तो एक समय है । अर्थात् एक समय व्यवधान देकर पुन: तीसरे क्षणमें सिद्ध उत्पन्न हो जाय । हां, सिद्ध हो रहे जीवोंका उत्कृष्ट रूपसे अन्तर पडे तो छः महीने तक विरहकाल पड जावेगा मध्यम भेदोंके प्रति अनेक अन्तर समझ लिये जांय ।
एकस्मिन् समये सिद्धयेदे को जीवो जघन्यतः ॥ १७ ॥ अष्टोत्तरशतं जीवाः प्रकर्षेणेति विश्रुतं, नाल्पे न बहवः सिद्धाः सिध्दक्षेत्रव्यपेक्षया ॥ १८ ॥ व्यवहारव्यपेक्षायां तेषामल्यबहुत्ववित्, तत्राये हरिणात्सिध्दा जन्मसिध्दसमूहतः ॥ १९ ॥ जन्मसिध्दाः पुनस्तेभ्यः संख्येयगुणताभृतः, कर्मभोगधरा वार्धि द्वीपोर्ध्वाधस्तिरोभुवाः ।। २० ॥ सिध्दानामूर्ध्वसिद्धाः स्युः सर्वेभ्योल्पे परे न्यथा, स्युः संख्येयगुणास्तेभ्योधस्तिर्यग्भिर्वृताः क्रमात् ।। २१ ।।
ग्यारहवीं संख्याका विमर्ष यों करो कि जघन्य रूपसे एक समय में एकही जीव सिद्ध हो पाता है। हां, प्रकर्षपनेसे एक समय में एकसौ आठ जीव सिद्धलोक में पहुंच जाते हैं । यह सिद्धान्त पूर्वाचार्य प्रसिद्ध है । बारहवें अल्पबहुत्वनामक अनुयोगका यों