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दशमोऽध्यायः
कोई जीव मतिज्ञानसे होता है, अन्य जीव अवधिज्ञानसे रूपीद्रव्योंकी स्पष्ट ज्ञप्ति कर आत्मलब्धि के अभिमुख होता जाता है, तीसरा जीव श्रुत या मनःपर्ययसे भी श्रेणीके योग्य ज्ञानधाराको उपजाता है। अतः स्वज्ञानके अभिमुख हो जानेकी अपेक्षा होनेपर दो, तीन, चार ज्ञानोंका व्यवहितमें होना कहा गया है। फिर अन्य प्रकारोंस नहीं कहा गया है।
अवगाहनमुत्कृष्टं सपादशतपञ्चकं ॥ १३॥ चापानामधसंयुक्तमलित्रयमप्यथ, मध्यमं बहुधा सिध्दिस्त्रिप्रकारेऽवगाहने ॥ १४ ॥ स्वप्रदेशे नभोव्यापिलक्षणे संप्रवर्तते, अनन्तरं जघन्येन द्वौ क्षणौ सिध्दयतां नृणां । १५ ।। उत्कर्षेणपुनस्तत्स्यादेतेषां समयाष्टकं । अंतरं समयोस्त्येको जघन्येन प्रकर्षतः । १६ । षण्मासाः सिध्दयतां नाना मध्यमं प्रतिगम्यतां ।
अवगाहनाकी अपेक्षा सिद्धोंका परामर्श यों किया जाय कि सिद्धोंकी उत्कृष्ट अवगाहना सवा पांचसौ धनुष है जो कि बड़े धनुषोंसे पौने सोलह सौ धनुष मोटे उपरिम तनुवातवलयके पन्द्रहसौवें भाग है । और सिद्धोंकी जघन्य अवगाहना आधारसहित तीन हाथ पानी साडे तीन हाथ प्रमाण है जो कि तनुवातवलय नौलाखवे भाग है । १५७४५०० - १५७५४५००४८ ......
- ९००००० ,, अर्थात्- मोक्षगामी ५२५ मनुष्योंका छोटा शरीर साडे तीन हाथ माना गया है। अर्थापत्ति द्वारा यह रहस्य प्रतीत हो जाता है कि छोटी अवगाहनावाले खङ्गासनसेही मोक्ष गये हैं। अन्यथा साडे तीन हाथका पल्यङ्कासन पौने दो हाथ ही ऊंचा रह जाता जो कि अवगाहना मोक्षमें अभीष्ट नहीं है । मोझमें सिध्दोंके खड्गासन दोही आसन अभीष्ट किये गये हैं। कौनीसे लगाकर फैली हई छोटी अंगलीतककी नापको अरनि कहते हैं । जघन्य अवगाहना साडे तीन अरनि है । मध्यम अवगाहनाओंके बहुत प्रकार है। यों उत्कृष्ट, जघन्य