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विभाव पर्यायें पलटती रहती हैं। चौदह गुणस्थानों में मिथ्याचारित्र, अचारित्र देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यात चारित्र ये चारित्रके नाम निरूपणीय हैं । किन्तु गुणस्थानोंसे अतिक्रान्त हों जानेपर सिद्धि होनेके आद्यक्षण में चारित्रका कोई शद्वद्वारा निदेश नहीं किया जाता है । किन्तु चारित्र गुणका स्वाभाविक परिणाम विद्यमान है । अतः शद्व द्वारा अब व्यक्तव्य हो रहे चारित्र करके साक्षात् सिद्धि होना माना गया है । हां, भूत पूर्व प्रज्ञापन नयकी अपेक्षासे तिस प्रकार विचार करनेपर एक, चार, पांच भेदोंवाले चारित्रसे सिद्धि होनेका समर्थन किया जाता है । अर्थात् अव्यवहित रूप करके एक यथाख्यात चारित्रसेही सिद्धि होंगी। हां, व्यवधान देकर तो सामायिक आदि चारों अथवा परिहार विशुद्धि चारित्र से अधिक हो रहे पांचों भी चारित्रोंसे मोक्ष हो जाता है । लाखों मोक्षगामियोंसे एक दोकेही परिहार विशुद्धि संयम हो पाता है । अतः पांचों संयमोंका संभव जाना किसी किसीका ही कहा गया है ।
तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिकालंकारे
परोपदेशशून्यन्यत्वासिद्धी प्रत्येकबुद्धता ॥ ११ ॥ परोपदेशतः सिद्धौ बोधितः प्रतिपादितः ज्ञानेनैकेन वा सिद्धिभ्यां त्रिभिरपीप्यते ॥ १२ ॥ चतुर्भिः स्वाभिमुख्यस्यापेक्षायां नान्यथा पुनः ।
परोपदेशकी शून्यता होनेसे स्वशक्ति अनुसार सिद्धि हो जानेपर जीवकी प्रत्येक बुद्धता व्यवच्छित है । और परोपदेश से सिद्धि होनेपर बोधित बुद्ध समझाया गया है । अर्थात् परम्परापर लक्ष्य दिया जायगा तो प्रत्येकबुद्धको भी कभी पहले देशना - लब्धि, शास्त्र श्रवण, परोपदेश, मिलही चुका होगा और बोधितबुद्ध भी मोक्ष जाने अव्यवस्थित पूर्व परोपदेशको नहीं सुनता रहता है । यों सर्वत्र स्याद्वाद सिद्धान्त अनुप्रविष्ट हो रहा है। आठवे ज्ञान अनुयोग करके सिद्धोंकी यों विकल्पना की जाय कि प्रत्युत्पन्नग्राही नयके आदेश से एक केवलज्ञान करके ही सिद्धि होगी | सिद्धलोकको जा रहे मुक्त जीवके उस समय अकेला केवलज्ञान है । हां, भूतपूर्व अवस्थाका निरूपण करनेसे तो मति, श्रुत, दो ज्ञानोसे या मति, श्रुत, अवधि तीन ज्ञानोंसे अथवा चारों क्षायोपशमिक ज्ञानोंसे सिद्धि होना अभीष्ट किया गया हैं । अर्थात् केवलज्ञानके पूर्व में नियमतः श्रुतज्ञान होता है । लब्धिरूप से चारों ज्ञान हो सकते हैं। स्वात्मलब्धि के अभिमुख