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दशमोऽध्यायः
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शीघ्र ऊपरही चला जाता है। मट्टी, पत्थर आदि पदार्थ अधोगौरवशील हैं, वायु तिर्यग्गौरव स्वभाव है। किन्तु आत्मा ऊर्ध्वगौरवशील है। यह तीसरा अनुमान भी इन्ही युक्तियोंसे परिज्ञात हो जाता है कि जिस प्रकार एरण्डका बीज बन्धनका छेद हो जानेसे ऊपरको जाता है। उसी प्रकार आत्माका कर्मबन्ध टूट जानेपर ऊपरको चला जाता है । जब तक वौंडीमें अण्डी थी तब भी एरण्ड बीजको ऊर्ध्वगमनकी प्रेरणा लग रही थी अवरोधकके हट जानेपर वह ऊपर उछल जाता है। उसी प्रकार रोकनेवाले गति, जाति आदि कर्मबन्धोंके छेद हो जानेसे मुक्तकी गति ऊपर हो रही जान ली जाती है। चौथा अनुमान यों है कि देश में जानेकी टेव होनेसे जैसे अग्निकी ज्वाला ऊपरको जाती है । उसी प्रकार मुक्त आत्मा ऊपरको गति करता है। इन सभी दृष्टान्तोंमें साध्य और साधनसे रीतापन नहीं है । यानी चारों भी दृष्टान्तोंमें नियत हेतु
और साध्य सुघटित पाये जाते हैं। चारों अनुमानोंमें प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण तीनों अंग सूत्रकारने कण्ठोक्त कर दिये हैं। बालकोंको व्युत्पत्ति करानेके लिये उपनय और निगमन भी प्रयुक्त किये जा सकते हैं।
___असंगत्वबन्धच्छेदयोरर्थाविशेषादनुवादप्रसंग इति चेन्नार्थान्यत्वात् । बन्धस्यान्योन्यप्रवेशे सत्यविभागेनावस्थानरूपत्वात्, संगस्य च परस्य प्राप्तिमात्रत्वात् । नोवाहरणमलाबारुतादेशादिति चेन्न, तिर्यग्गमनप्रसंगात् तिर्यग्गमनस्वभावत्वान्मारुतस्य ।
यहां कोई आक्षेप कर रहा है कि दूसरे असंगत्व हेतु और तीसरे बन्धच्छेद हेतु इन दोनोंमें कोई अर्थ की विशेषता नहीं दिखती है। परद्रव्यके संसर्गसे रहित हो जाना और परद्रव्यकें बन्धका छिद जाना दोनों एकही बात हैं । अतः तीसरे हेतुका कहना तो मात्र दूसरेका अनुवाद कर देना है। ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा दोष प्रसंग तो नहीं उठाना क्योंकि दोनोंका अर्थ न्यारा न्यारा है । देखिये बन्धने योग्य आत्मा और कर्मका परस्पर प्रदेश प्रवेश होते सन्ते विभाग रहित होकर स्थित हो जाना स्वरूप ती बन्ध है । जो कि एकपनकी बुद्धि उत्पन्न कहता है। और प्रकृत द्रव्यके साथ दूसरे पदार्थको छू लेना मात्र प्राप्ति हो जाना संग है " परस्पर प्राप्ति " पाठ भी अच्छा है। दूधमें बूरेका बन्ध हो रहा है । और दूधमें डाल दिये गये सौवर्ण कंकणका संसर्ग है । यों बन्ध और संयोगके अर्थमें अन्तर है। यहां कोई प्रतिवादी कह रहा है कि मुक्त जीवका स्वभावसेही ऊर्ध्वगमन हो जाने में तूम्बीका उदाहरण ठीक नहीं है क्योंकि तूम्बी