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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
नचानैकांतिकं तत्स्याद्विरुद्ध वा विपक्षतः,
· व्यावृत्तेः सर्वथा नेष्ट विघातकृदिदं ततः ॥ ४ ॥
मुक्त आत्मा ऊपरको चला जाता है । ( प्रतिज्ञा ) तिस प्रकार पूर्वकालका प्रयोग होनेसे (हेतु) जैसे कि कुम्हारका गोल घुमा दिया गया चाक है । (अन्वयदृष्टांत ) इस अनुमान में प्रयुक्त किया गया हेतु असिद्ध नहीं है। यानी " पूर्व प्रयोग " हेतु मुक्तात्मा पक्ष में विद्यमान है । क्योंकि मोक्षकी तीव्र कामना कर रहे संसारी जीवका लोकके अग्रभागमें गमन करनेके लिये स्पष्ट रूपसे बहुत बार योगविशेष लगाये रहनेका सद्भाव है । जिस कार्यको करनेके लिये अनेक बार मनोयोग लग चुका है । उस प्रणिधानका इतना आवेश आत्मामें भरा हुआ है कि मनोयोगसे हट जानें पर भी उसके आवेश अनुसार मुक्त आत्मा ऊपरको चला जाता है । अतः उक्त हेतु असिद्ध हेत्वाभास नहीं है । तथा कहा गया “ पूर्वप्रयोग हेतु " अनैकान्तिक (व्यभिचारी) अथवा विरुद्ध हेत्वाभास भी नहीं है । क्योंकि सभी प्रकारों करके विपक्षसे हेतु व्यावृत्त हो रहा है । 'विपक्ष के एक देश में रहता तो व्यभिचारी होता, बिपक्षमें सर्वांग रहता तो विरुद्ध होता, किन्तु यह हेतु विपक्ष में रहता ही नहीं है अतः निर्दोष है । तिस कारण सिद्ध हुआ कि यह हेतु या अनुमान अभीष्ट साध्यका विघात करनेवाला नहीं है । प्रत्युत • साध्यका साधक है ।
. असंगत्वाद्यथालाबूफलं निर्गतलेपनं, बंधच्छेदाद्यथै रण्डबीजमित्यप्यतो गतं ॥ ५ ॥ ऊर्ध्वब्रज्यास्वभावत्वादग्नेर्ज्वाला यथेति च, दृष्टान्तेऽपि न सर्वत्र साध्यसाधनशून्यता ॥ ६ ॥
मुक्त जीव ऊपरको जाता है । संगरहित हो जानेसे जैसे कि लेपनको निकाल चुका तुम्बीफल ऊपरको आ जाता है । भावार्थ - -तुम्बीफलपर मिट्टीका लेप कर देनेपर जलमें डाल देनेंसे वह नीचे पड जाती है । और वही तूम्बी जलके
बन्धनको पृथक् कर हलकी हो बोझ आक्रान्त हो रहा आत्मा
क्लेद द्वारा मिट्टी के चुकी ऊपरही चली जाती है । तिसी प्रकार कर्म के संसारमें डूबा रहता है, कर्मसंसर्ग के छूट जानेपर