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दशमोऽध्यायः
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धूम होनेसे रसोई घरके समान । यहां पक्ष हो रहे पर्वतसे बाहर रसोई घरमें व्याप्ति साधी गई दिखलाई गई है । तथा सम्पूर्ण अनेकान्त आत्मक हैं। प्रमेय होनेसे अग्निके समान यहां पक्ष हो रहे सम्पूर्ण पदार्थों के भीतरही अग्निमें साध्य और हेतुकी व्याप्ति ग्रहण की गई है। यह अन्तर्व्याप्ति है। प्रकरणमें पक्षसे अतिरक्त चक्रतूम्बी आदि बाहर ले पदार्थों में अन्वय व्याप्ति दिखलाई गई है । पक्षसे बाहर दृष्टान्तमें व्याप्तिको दिखलानेपर प्रतिवादीको अधिक विश्वास हो जाता है । क्योंकि " लौकिकपरीक्षकाणां यत्र बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः " लौकिक और परीक्षक या वादी और प्रतिवादी दोनोंकी बुद्धि जिसको समानरूपेण मान्य कर रही है वह दृष्टान्त होता है। यों अन्तिम अध्यायमें सूत्रकारने हेतु दृष्टान्तपूर्वक मुक्तकी ऊर्ध्वगतिको सिद्ध कर दिया है । सूत्रकार महा- . राजके अन्य अध्यायोंमें निरूपे गये तत्त्व सभी युक्ति, दृष्टान्तोंसे भरपूर हैं । " स्थाली तंडुल" न्याय अनुसार सभी तत्त्वार्थों में विद्वान् पुरुष सामर्थ्यसे हेतु और दृष्टान्तोंको लगा लेवें । न्यायशास्त्रके गम्भीर विद्वान् श्री विद्यानन्द स्वामीने इस ग्रंथमें : तत्त्वार्थसूत्रोक्त प्रमेयोंकी हेतु दृष्टान्तपूर्वक सिद्धि करने में किसी भी प्रकारकी कसर नहीं छोडी है । विवक्षित तत्त्वको सिद्धिकी चूडापर मणि बना कर विराजमान कर दिया है । तभी तो यह ग्रन्थ सूत्रोक्त तत्त्वार्थ सिद्धान्तोंका श्लोकों द्वारा वात्तिकोंमें रचित किया गया अलंकार स्वरूप है। जिज्ञासु सज्जन उसी रहस्यको स्पष्टरूपेण देशभाषामय " तत्त्वार्थचिन्तामणि" में परिज्ञातकर सफल मनोरथ होवें ।
हेतुदृष्टान्तानां यथासंख्यमभिसंबन्धः । कमित्याह;
पूर्व सूत्रमें कहे गये चारों हेतुओं और इस सूत्रमें कहे गये चारों दृष्टान्तोंका संख्या अनुसार यथाक्रमसे आगे पीछे संबन्ध कर दिया जाय । किस प्रकार संबन्ध करें? ऐसी जिज्ञासा उत्थित होनेपर ग्रन्थकार अग्रिम वात्तिकोंको कह रहे हैं।
ऊर्ध्वं गच्छति मुक्तात्मा तथा पूर्वप्रयोगतः, यांविद्धं कुलालस्य चक्रमित्यत्र साधनं ।। २ ॥ नासिद्धं मोक्तुकामस्य लोकाग्रगमनं प्रति, प्रणिधानविशेषस्य सद्भावादभूरिशः स्फुटं ॥ ३ ॥