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दशमोऽध्यायः
देखा जाय तो सिद्ध भगवान् तो सिद्ध ही हैं। " चारित्रवान हैं, दानवान हैं, इत्यादिक रूपसे उनका निरूपण करना शोभा नहीं देता है। "गगनं गगनाकारं, सागरः सागरोपमः । अर्हन्नहन्निव प्रोक्तः सिद्धाः सिद्धोपमाः स्मृतः" । निर्विकल्पक निरुपम सिद्धपरमेष्ठी सिद्ध ही हैं। क्योंकि वे गुणस्थानोंके झगडेसे विशेषरूपेण मुक्त हो चुके हैं ।
• नन्वेव केवलदर्शनादीनामपि क्षायिकभावानां मोक्षे क्षयः प्रसज्यत इत्यारेकायामपवादमाह;
यहां कोई विनीत शिष्य आशंका उठा रहा है कि इस प्रकार औपमिक आदि भावोंका क्षय माननेपर तो मोक्ष अवस्थामें केवलदर्शन, केवलज्ञान आदिक क्षायिक भावोंके भी क्षय हो जानेका प्रसंग आ जावेगा ? और ऐसी दशामें प्रदीपनिर्वाण समान मोक्ष तत्त्व शून्यपदार्थ बन बैठेगा तुच्छाभावको जैनोंने अभीष्ट नहीं किया है । इस प्रकार संशय उपस्थित हो जानेपर सूत्रकार महाराज अपवाद मार्गको अग्रिम सूत्र द्वारा स्पष्ट रूपेण कह रहे हैं।
अन्यत्र केवल सम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥ ४ ॥
केवलसम्यक्त्व, (क्षायिकसम्यग्दर्शन) केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व भाव इनसे वजित शेष सम्पूर्ण भावोंका मोक्षमें क्षय हो जाता है। भावार्थ-औपमिक आदिक त्रेपन भावोंमेंसे कतिपय क्षायिकभाव और जीवत्वभाव मुक्तोंमे अवश्य पाया जाता है । अस्तित्व आदि भाव भी उनके पाये जाते हैं। एकसो अडतालीस प्रकृतियोंमेंसे किसी भी एक आदिका उदय या सद्भाव बना रहनेसे जीव सिद्ध नहीं हो पाता है। हां, सम्पूर्ण कर्मोंका क्षय हो जानेपर सिद्धत्व भाव सदा सिद्धोंका जगमगाता रहता है। अतः अनेक शुद्धभावोंका पिण्ड मुक्त अवस्थामें है । मोक्ष तुच्छ पदार्थ नहीं है।
अन्यत्र शवोऽयं परिवर्जनार्थस्तदपेक्षः सिद्धत्वेभ्य इति विभक्तिनिर्देशः । 'अन्यत्र द्रोणभीष्माभ्यां सर्वेयोधाः पराङ्मुखा, इति यथा । अन्यशब्दप्रयोगें तद्विज्ञानमिति चेन्न, प्रत्ययान्तस्यापि प्रयोगे तद्दर्शनात् ।।
सूत्रमें पडा हुआ यह “ अन्यत्र " शब्द तो परित्याग अर्थको लिये हुये है। उस परिवर्जन अर्थकी अपेक्षा अनुसार " सिद्धत्वेभ्यः " यहां पञ्चमी विभक्तिका निर्देश