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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
तथा मनुष्यगति आदि औदयिक भावोंके अभाव हो जानेपर आत्माका सद्भाव बना रहे क्योंकि ये नैमित्तिकभाव हैं। पर उपाधियोंसे जन्य हैं। औपाधिक भाव नष्ट हो जाने ही चाहिये तभी निराकुल होकर स्वात्मलाभ हो सकेमा किन्तु क्षायिक भावोंके अभाव हो जानेपर आत्माका सद्भाव किस प्रकार ठहर सकता है ? क्योंकि पर उपाधियोंका क्षय हो जानेपर स्वात्मनिष्ठा प्राप्त होती है। सूत्रकार महाराजने " औपशमिकादि भव्यत्वानां च " इस सूत्रमें आदि पद करके क्षायिक भावोंका भी ग्रहण किया होगा । क्षायिकचारित्र, क्षायिकदान, आदि भावोंकी निवृत्ति हो जाना तो अच्छा नहीं जचा ।
अत्र समाधीयते___ यहां ऐसी शंका उपस्थित हो जानेपर ग्रन्थकार करके 'अब समाधान वचन कहा जाता है।
सिद्धिः सव्यपदेशस्य चारित्रादेरभावतः । क्षायिकस्य न सत्यस्मिन् कृतकृत्यत्वनितिः ॥ ३॥ न चारित्रादिरस्यास्ति सिद्धानां मोहसंक्षयात् । सिद्धा एव तु सिद्धास्ते गुणस्थानविमुक्ततः ॥ ४ ॥
देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्र, सामायिक, छेदोपस्थापना इत्यादि नामोंसे कहे जा रहे चारित्र अथवा क्षायिकदान, लाभ, आदि नामवाली लब्धियां आदिके अभावसे सिद्धि होती है । हां, शुद्ध अव्यपदेश्य क्षायिक भावोंके अभावसे सिद्धि नहीं है। प्रत्युत इन निर्विकल्पक चारित्र, क्षायिकदान आदि भावोंके होनेपरही सिद्धोंके कृतकृत्यपनकी सिद्धि हो रही है । स्वरूपनिष्ठा करानेवाले परिणामोंको चारित्र माना गया है। अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्ति होनेको चारित्र कहते हैं। " असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं " अथवा "बहिरअन्तर किरिया रोहो भवकारणप्पणासठं " संसार कारणोंके विनाशार्थ बहिरंग अन्तरंग क्रियाओंका रोध करना चारित्र है। जब मोक्ष अवस्थामें जीव कृतकृत्य हो जाता है। करने योग्य कृत्योंको कर चुकता है । तो इसके उक्त चारित्र, दान, आदिक सविकल्प नहीं हैं। हां, चारित्र मोहनीय कर्मका बढिया क्षय हो जानेसे सिद्धोंके क्षायिकभावका सद्भाव है। वस्तुत: