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दशमोऽध्यायः
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है। हां, जीवत्वभाव विद्यमान है। कर्मोंके क्षयसे उपजनेवाले क्षायिक भाव तो मोक्ष अवस्थामें रहनेही चाहिये।
__ भव्यत्वग्रहणमन्यपारिणामिकानिवृत्त्यर्थ, तेन जीवत्वादेरव्यावृत्तिः सर्वतः सर्वदा प्रसिद्धा भवति । कस्मादौपशमिकादिक्षयान्मोक्ष इत्याह;
इस सूत्रमें भव्यत्वका ग्रहण करना तो अन्य पारिणामिक भावोंकी नहीं निवृत्ति करनेके लिये है। यों तिस भव्यत्वका कण्ठोक्त निरूपण कर देनेसे जीवत्व, अस्तित्व, पर्यायत्व, असर्वगतत्व, अरूपत्व आदि पारिणामिक भावोंकी व्यावृत्ति नहीं होना सर्वदा सब ओरसे प्रसिद्ध हो जाता है। अर्थात् जीवत्व, अस्तित्व आदिक पारणामिक भाव मोक्ष अवस्थामें सदा सर्व रूपसे विद्यमान रहते हैं ! यहां कोई तर्कशील विद्यार्थी पूछता है कि किस कारणसे औपशमिक आदि भावोंके क्षयसे मोक्ष हो जाता है ? युक्तिपूर्वक समझाओ । ऐसी तर्कणा उपस्थित हो जानेपर ग्रन्थकार अग्रिम वात्तिकोंको कह रहे है।
तथौपशमिकादीनां भव्यत्वस्य च संक्षयात् । मोक्ष इत्याह .तद्भावे संसारित्वप्रसिद्धितः ।। १॥ नन्वौपशमिोऽभावे क्षायोपशमिकेऽपि च । भावेऽत्रौदयिके पुंसो भावोस्तु क्षायिके कथं ॥२॥
तिस प्रकार औपशमिक, क्षायोपशमिक आदि और भव्यत्वभावका बढिया क्षय हो जानेसे मोक्ष होती है। इस सिद्धान्तको सूत्रकारने हेतुपूर्वक कहा है । ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उन औपशमिक आदि भावोंके पाये जानेपर संसारी बने रहनेकी प्रसिद्धि है । (हेतु) अर्थात् उपशम सम्यग्दर्शन, मतिज्ञान, संयमासंयम, देवगति, क्रोध आदि भावोंका सद्भाव संसारी जीवोंमेंही पाया जाता है। यदि मुक्त जीवोंमें भी उक्त भावोंकी सत्ता मानी जायगी तो वे संसारी हो जावेंगे। उनको कभी मोक्ष नहीं नहीं हो सकेगा। हां, ओपशमिक, औदयिक आदि भावोंका अभाव हो जानेपर शुद्ध आत्माकी कोई क्षति नहीं होती है। प्रत्युत, आत्माकी स्वात्मीयता और शुद्धता अधिक प्रकट हो जाती है। यहां कोई शंका उठाता है कि औपशमिक भाव और क्षायोपर्शमिक भी भाव