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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
छूट जाना मात्र क्रिया मोक्ष है। यों मोक्ष शद्बकी निरुक्ति कर व्युत्पत्ति कर लेनी चाहिये । संयोग, वियोग, द्वित्व, त्रित्व संख्या इत्यादि पदार्थ दो आदि पदार्थों में रहते हैं। छोडने योग्य कर्म मोक्तव्य हैं, और छोड देनेवाला आत्मा पुरुषार्थी मोक्षक है । इस अपेक्षासे केवल विप्रयोग यानी केवल वियोंग हो जाना इतनी क्रियाकी ज्ञप्ति हो जाती है। कर्मका विशेषण सूत्रमे कृत्स्न कहा गया है । कर्मोकी सत्ता, बन्ध होना, उदयमें आना, उदीरणा हो जाना, आदिक अनेक अवस्थायें हैं । मोक्षमें पौद्गलिक सम्पूर्ण कर्मोंका नाश तो हो ही जाता है । साथही कर्मोंकी तत्स्वरूप कृत्स्न अवस्थाओंसे भी कर्मोंका नाश हो जाता है । अतः सत्ता, बन्ध, उदय और उदीरपणा अवस्थाओंमें व्यवस्थित हो रहे आठों प्रकारके कर्मोंका कृत्स्न शब्द करके ग्रहण हो जाता है । उन
र्मोके क्षय होनेका विभाग कैसा है ? इसका गुणस्थानोंकी उपेक्षा रखता हुआ वह विभाग आप्तोक्त आगमसे उपरिष्ठात् प्राप्त कर लेना चाहिये । अर्थात् किस २ गुणस्थानमें किन किन प्रकृतियोंका क्षय होता है । इस रहस्यको राजवात्तिक, गोम्मटसार, आदि महान् आर्ष ग्रन्थोंसे समझ लिया जाय ।
कि द्रव्यकर्मणामेव मोक्षः स्पादुत भावकर्मणामपीत्याशंकायामिदमाह -
यहां कोई प्रश्न उठाता है कि क्या पौद्गलिक द्रव्यकर्मोके क्षयसेही मोक्ष हावगा ! अथवा क्या भाव कर्मोके क्षयसे भी मोक्ष हो सकेगी? इस प्रकार आशंका प्रवर्तनेपर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्रको स्पष्टरूपेण कह रहे हैं। - औपशमकादिभव्यत्वानां च ॥३॥
उपशम सम्यक्त्व, उपशमचारित्र इन औपमिक भाव और मतिज्ञान आदिक क्षायोपशमिक भावको आदि लेकर भव्यत्व पर्यन्त भावकर्मोंका भी क्षय हो जानेसे मोक्ष होती है । अर्थात् दोनों औपशमिक भाव, अठारहों क्षायोपशमिकभाव, इकईसों औदयिक भाव और पारणामिक भव्यत्वभावका मोक्ष अवस्थामें क्षय हो जाता है । अभव्यत्व भाव तो मोक्षगामी जीवके है ही नहीं।
" भविया सिद्धि जेसि जीवाणं ते हवन्ति भवसिद्धा,
तविवरीया भन्वा संसारादो ण सिज्झन्ति ॥" जिनकी भविष्यमें सिद्धि होनेवाली है। वे जीव भव्य हैं किन्तु जिनकी सिद्धि हो चुकी वे तो भूत सिद्ध हैं। उनमें भविष्य कालकी अपेक्षा रखनेवाला भव्यत्व नहीं