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दशमोऽध्यायः
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लडका लडकी या गर्भज नपुंसक ( हीजडा ) को ले लिया जाय उसके अनादिकालीन अनन्तानन्त पिताओंने अपने औरस्य सन्तानको अवश्य उपजाया था, सन्तानको नहीं उपजा करवे क्लीवपनेकी गाली खाकर वे नहीं मरे । इसी प्रकार उस मानवकी अनादिकालीन अनन्त मातायें भी बन्ध्यायें न कहाकर प्रसवित्री बन चुकी हैं। अब बीज, अंकुरपर आ जाइये कि उसको भूज लेनेपर या जला देनेपर पुनः उसकी सन्तान नहीं चलती है । अतः जला दिये गये बीजकी अनादि सन्तान भी सान्त हो गई इसी बातको अन्य ग्रन्थमें भी यों कहा गया है कि जिस प्रकार बीजके अग्निद्वारा अत्यन्त रूपसे दग्ध किये जानेपर पुन: उससे अंकुर नहीं उगता है। तिसी प्रकार रत्नत्रयद्वारा कर्मबीजके दग्ध हो जानेपर पुनः जन्मजरामृत्युस्वरूप संसार अंकुर नहीं उपज पाता है। पुनः कोई जिज्ञासु पूछ रहा है कि कर्मपरिणत पुद्गलद्रव्यका क्षय बताओ किस स्वरूपसे हो जाता है ? क्या उसका मटियामेट होकर समूलशिख विनाश हो जाता है ? अथवा उस पुद्गलकी कर्मअवस्थाका विनाश हो जाता है, बताओ । यो सानुनय तर्क उठानेंपर ग्रन्थकारसे यह समाधान कहा जाता है कि सम्पूर्ण कर्मका कर्म अवस्थापनेसे क्षय हो जाता है, पुद्गलपने करके क्षय नहीं होता है। क्योंकि अनादि अनन्त सत्स्वरूप हो रहे किसी भी द्रव्यका द्रव्यपने करके अत्यन्त विनाश हो जानेका योग नहीं है । " नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः " सद्रव्यका विनाश नहीं होता है, और सद्रव्य कभी उपजता नहीं है । जितने एक या असंख्यात वा अनन्त द्रव्य हैं तीनों कालोंमें उतनेही हैं, अपनी इयत्ताको नहीं छोडते हैं। " नित्यावस्थितान्यरूपाणि " अतः उन द्रव्योंकी उत्पत्ति भी नहीं मानी गई है । विनाश और उत्पादसे रहित हो रहे द्रव्यकी सदा स्थितिही प्रसिद्ध है। हां, उन परिणामी द्रव्योंकी पर्यायोंका उत्पाद या विनाश होता रहता है। कार्मणवर्गणास्वरूप उस पुद्गलकी संसारी आत्माके कषाय आदि परिणाम विशेषसे कर्मपर्यायरूप करके उत्पत्ति हो जाना सिद्ध है। इसी कारण आत्मपरिणामों करके उसका कर्मत्व पर्यायरूपसे विनाश हो जाना भी युक्तिपूर्ण है । इस प्रकार सम्पूर्ण कर्मोंका क्षय हो जाना मोक्ष सिद्ध कर दिया गया है। अब ग्रन्थकार दूसरी बातको बता रहे हैं। मोक्ष शब्द भावमें प्रत्यय कर साधा गया है। जो कि दो को विषय करता है । कारण कि प्रकर्ष रूपसे वियोग हो जाना मात्र इतनीही क्रियाकी ज्ञप्ति हो रही है । "मोक्ष असने" यों इस धातुसे घञ् प्रत्यय करने पर