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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
किया गया है। जिस प्रकार कि द्रोण और भीष्मको छोडकर सभी योद्धा युद्धसे पराङ्मुख हो गये हैं। इस प्रयोगमें अन्यत्र शद्वका योग हो जानेपर " द्रोणभीष्माभ्यां " इस पदमें पञ्चमी विभक्ति की गई है। यहां कोई आक्षेप करता है कि अन्य शद्वका प्रयोग करनेपर भी उस वर्जन अर्थका विशेषज्ञान हो सकता था सूत्रकारने व्यर्थ “त्र" प्रत्यय लगाकर अन्यत्र इतने बडे शब्द का प्रयोग किया ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि जिस प्रकार " अन्यो देवदत्तात् " यहां अन्य शद्वके प्रयोगमें पञ्चमी विभक्ति हुई है। उसी प्रकार स्वार्थमें त्र प्रत्ययकर त्र प्रत्ययान्त अन्यत्र शद्बके प्रकृष्ट सन्निधान होनेपर भी विभक्त्यर्थ अनुसार उस पञ्चमी विभक्तिका होना देखा जाता है । स्वार्थिक प्रत्ययोंके लग जानेसे कोई गौरव दोषचर्चा आदर नहीं पाती है।
अनन्तवीर्यादिनिवृत्तिप्रसंग इति चेन्न, अत्रैवान्तर्भावात् । अनन्तवीर्यहीनस्यामंतावबोधवृत्त्यभावात् सुखस्य ज्ञानसमवायित्वात् । बन्धस्याव्यवस्था अश्वादिवदिति चेन्न, मिथ्यादर्शनाधुच्छेदे कात्स्न्येन तत्क्षयात् । पुनः प्रवर्तनप्रसंगो जानतः पश्यतश्च कारुण्यादिति चेन्न, सर्वास्त्रवपरिक्षयात् । वीतरागे स्नेहपर्यायस्य कारुण्यस्यासंभवाभक्तिस्पृहा. दिवत् । अकस्मादिति चेदनिर्मोक्षप्रसंगः सतो हेतु कस्य नित्यत्वापत्तेविनाशायोगात् ।
पुनः कोई शंकाकार बोल उठा कि सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्वभाव इन चारकाही उल्लेख कर देनेसे तो अन्य अनन्तवीर्य, अनन्तसुख, सूक्ष्मतत्व आदि भावोंकी निवृत्ति हो जानेका प्रसंग आ जावेगा। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि उन अनन्तवीर्य आदिकोंका इन्हीं सम्यक्त्व आदिमें अनन्त भाव हो जाता है । जो जीव अनन्तवीर्यसे हीन है, उसके अनन्तज्ञानकी प्रवृत्ति हो जानेका अभाव है । ज्ञान और वीर्यका अविनाभावी सम्बन्ध है। जैसे कि रूप कह देनेसे रस आदि विना कहे ही समझ लिये जाते है । उसी प्रकार क्षायिकज्ञानका कण्ठोक्त सद्भाव स्वीकार कर लेनेपर तदविनाभावी अनन्तवीर्यका सद्भाव विना कहे ही अर्थापत्या प्रतीत हो जाता है । तथा सुख का ज्ञान गुणके साथ एकार्थसमवाय संबन्ध हो रहा है । ज्ञान और सुख दोनों एक अर्थ आत्मामें गुरुभाईके समान एकार्थ समवेत हो रहे हैं। अतः ज्ञानका निरूपण कर देनेसे उसके सहचर सुखका भी निरूपण हो चुका समझो। अथवा सुख ज्ञानमय ही है। अतः ज्ञानपदसे तदभिन्न सुखका भी ग्रहण हो जाता है। यहां