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दशमोऽध्यायः
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हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा स्वरूप छओं नोकषाय कर्मोंको पुंवेद 'कर्मम प्रक्षेपण कर क्षय कर दिया जाता है । पुंवेदका क्रोधसंज्वलन में और क्रोधसंज्वलन कर्मका मानसंज्वलनमें, तथा मानसंज्वलनका मायासंज्वलनमें एवं मायासंज्वलन कर्मका लोभसंज्वलनमें प्रक्षेपण कर संक्रमण क्रम अनुसार प्रलय कर दिया जाता है । वादरकृष्टि विभाग करके वादरलोभ संज्वलन कर्मका विलय कर मात्र सूक्ष्म संज्वलन कर्म अवशेष रह जाता है । किदि शद्व प्राकृतभाषाका है, जो कि कृष्टिका अपभ्रंश है | वादर fafa इस का अर्थ क्या है ? इसका उत्तर यही है कि उपाय द्वारा फलको भोग कर निर्जराको प्राप्त हुये कर्मोंसे उद्धृत कर लिये गये अवशेषहीन शक्तिवाले कर्म किदि नामसे कहे जाते हैं । जैसे कि घृतका विलोडनकर मोटे रूपसे सूक्ष्म कर्षण हो जाता है अथवा अन्नको चाकीमें पीस देनेंसे उसके सूक्ष्मखण्ड हो जाते हैं । यों नवमें गुणस्थानमें पूर्वस्पर्द्धक, अपूर्व स्पर्द्धक, वादरकृष्टि, सूक्ष्मकृष्टि, अनुभाग अनुसार संज्वलन कर्मको सूक्ष्म कर दिया जाता है । वह किट्टि वादरकिदि और सूक्ष्मकिट्टि भेदसे दो प्रकार की होती है । यों किदि शद्वका अर्थ समझ लेना चाहिये । उसके पश्चात् लोभ संज्वलनको कृषकर दशवें गुणस्थान में सूक्ष्मसांपरायक्षपक होकर अन्तम सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका निर्मूलनकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्मके भारको फेंककर निर्मोह हो रहा सन्ता परिणामोंकी विशुद्धि द्वारा ऊपर चढ जाता है । उस अन्तर्मुहूर्त कालस्थायी बारहमें गुणस्थानके उपान्त्य समयमें यानी अन्तिम समयसे पहिले समय में अर्थात् द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला दो प्रकृतियोंका क्षय कर अन्तिम समयमें पांच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरण तथा पांच अन्तराय कर्मोंका पुरुषार्थ द्वारा क्षय करा देता है । उसके अव्यवहित पश्चात् आत्माके स्वभाव . हो रहे केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वरूप केवलको भले प्रकार प्राप्त कर नहीं चिन्तनमें आवे ऐसी बहिरंग, अन्तरंग विभूति के माहात्म्यको वह यत्नशील आत्मा प्राप्त हो जाता है । वीरनिर्वाण सम्वत् २४४४ यानी विक्रम सम्वत् १९७५ में मुद्रित हुई पुस्तकमें " मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तराय क्षयाच्च केवलं सूत्रकी टीका छपी नहीं है, उत्तर प्रान्तकी लिखित पुस्तकमें जो कुछ शुद्ध, अशुद्ध टीका पाई गई उसकी भाषा यथायोग्य संशोधन कर कर दी गई है । पुनः मूडबिद्री से ताडपत्रपर लिखी हुई प्राचीन
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