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तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
गुणस्थान और आठवें तथा नौवें गुणस्थानोंमें पाये जा रहे तीनों कारणोंका अग्रिम वात्र्तिकों द्वारा निरूपण करते हैं । ज्ञानके विना सभी आत्मीय परिणाम यद्यपि अवाच्य हैं फिर भी चारित्र गुणके परिणाम हो रहे उन तीनों कारणोंके अन्तस्तलपर शिष्यको पहुंचाने के लिये आचार्य महाराज स्तुत्य प्रयत्न करते हैं । अविनाभावी हेतुओं से साध्यकी प्रतिपत्ति होवेगी ही ।
अथाप्रमत्तकरणमपूर्वकरणं च वा, निवृत्तिरहितं यस्मिन्न निवृत्तिश्च कथ्यते ॥ ४ ॥ परिणामविशेषात्किं सोऽयं समुपवर्णितः कीदृशास्ते भवन्त्येवानिवृत्तिकरणांतगाः ।। ५ ।। विशिष्टपरिणामाश्च वाच्यं शब्दमनुक्रमं । एकस्मिन् समयेऽन्यस्यैकैकस्य समयस्य तत् ॥ ६ ॥
एकदा लोकमानाश्च जीवस्य परिणामिकाः ।
पहिला करण अथाप्रवृत्त करण है और दूसरा अपूर्व करण है, तथा तीसरा निवृत्तिरहित अनिवृत्तिकरण कहा जाता है । परिणामोंकी विशुद्धियोंका विशेषरूप से बढना होते रहने से यह अनिर्वचनीय करणों का क्रम आगममें भले प्रकार वर्णित किया गया है । वे अनिवृत्तिकरण तक अन्तको प्राप्त हो रहे विशिष्ट परिणाम भला किस ढंगके हैं ? और वे इसही क्रमसे उपजते हैं ? इन प्रश्नोंका उत्तर शद्वों द्वारा नहीं कहा जा सकता है । तथापि क्रम अनुसार शिष्य व्युत्पत्ति के लिये शद्वों द्वारा कहा जा रहा है । जैसे कि अन्धे पुरुषको कच्चे, पके, आम्र फलोंके वर्णका ज्ञान उनकी अविनाभावी गन्धोंद्वारा कर दिया जाता है । एक समय में दूसरे अन्य एक एक समयकें एक काल देखे जा रहे परिणाम समुदाय नाना जीवोंके हो जाते हैं । तिस कारण पहिला करण अथाप्रवृत्त या अधःकरण है । भावार्थ - यहां कुछ पाठमें त्रुटि रह गयी दीखती है, " श्री गोम्मटसार " में
जह्मा उवरिम भावा हेटिम भावेंहि सरिसगा होंति ह्मापढमं करणं अधापवत्तोति णिद्दि ||