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दशमोऽध्यायः
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यहां कोई शंका उठा रहा है कि मनुष्योंके केवलज्ञानकी प्राप्ति होना मोहनीय कर्मके क्षयसे तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्मोके क्षयसे होगी । इस प्रकार वाक्यका भेद क्यों किया गया है ? समास कर लाघवसे एक साथ मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, कर्मोंके क्षयसे केवलज्ञानका उत्पाद होना कह देना चाहिये था । वाक्यका भेद कर देनेंसे सूत्रकारके ऊपर गौरवदोष दिया जा सकता है । ग्रन्थकार कह रहे कि हैं समासवृत्ति कर प्रतिपादन करानेका उल्लंघन कर जो कोई वाक्य भेद किया गया है । वह किसी भी अनुक्रम नामके अतिशयका परिभाषण करता है । उक्त कर्मोंका क्रमानुसार क्षय हो जानेसे केवलज्ञान उपजता है । पहिले ही इस जीवके मोह - नीय कर्मका क्षय हो जाता है । पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्मों का क्षय किया जाता है । तब केवलज्ञान आदि चतुष्टयकी प्राप्ति होती है । कर्मों का क्षय किये विना कोई भी भव्य जीव उत्कृष्ट मोक्षगतिको प्राप्त नहीं कर पाता है । अत्या. धिक पुरुषार्थपूर्वक प्रणिधान विशेष लगाकर विशिष्ट जातीय परिणामों करके आत्मा कर्मोंका क्षय करनेके लिये उद्युक्त हो जाता है ।
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भव्य प्राणी सम्यग्दृष्टिर्जीवः परिणामविशुद्धया वर्द्धमानोऽसंयतसम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयत गुणस्थानेष्वन्यतमगुणस्थानेऽनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टय दर्शनमोह त्रितय क्षयसुपनय ततः क्षायिक सम्यग्दृष्टिर्भूत्वाऽप्रमत्तगुणस्थानेऽथाप्रवृत्तकरण मंगीकृत्यापूर्वाकरणाभिमुखी भवति ।
भव्य प्राणी ज्ञानोपयोगी जीव सम्यग्दृष्टि होकर परिणामोंकी विशुद्धि करक अनुक्षण बढ रहा सत्ता चौथे असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान या पांचवें देशसंयत गुणस्थान अथवा छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान एवं सातमें निरतिशय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान इन चारमेंसे किसी भी एक गुणस्थानमें करणत्रय द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों का बिसंयोजन करता हुआ मिथ्यात्व, सम्यङ्ग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व इन तीनों दर्शन मोहनीय कर्मोके क्षयको प्राप्त कर देता है । उसके पश्चात् क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर सातमें अप्रमत्तगुणस्थानमें अथाप्रवृत्तकरणको अङ्गीकार कर आठमें अपूर्वकरण गुणस्थानके अभिमुख हो जाता है । भावार्थ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धिविसंयोजन, क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेके पूर्वमें कतिपय स्थलों पर भिन्न भिन्न जातिके करणत्रय होते है । किन्तु यहां प्रकरण अनुसार सातिशय अप्रमत्त सातवें