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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
घटका ध्वंस ठीकरा आदि पर्याय उपज जाता है, यों ऐसा मोहका क्षय है। उस मोह क्षयसे यों निरुक्ति कर पांचमी विभक्तिमें “ मोहक्षयात् " शब्द बना लिया है । द्वंद्वसमासके आदि या अन्तमें पडे हुये पदका प्रत्येक में अन्वय कर लिया जाता है। प्रकरणमें यह कहना है कि " ज्ञानदर्शनावरण" पदके अन्तमें पड़े हुये आवरण शद्वका प्रत्येकमें प्रयोग कर देना चाहिये । तैसा कर देनेसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण यों निर्वचन कर समासद्वारा " ज्ञानदर्शनावरणे " पद बना दिया जाता है। वे ज्ञानावरण और दर्शनावरण तथा अन्तराय यों द्वन्द्वसमास कर “ ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाः पद बना लिया जाय । उनका क्षय हो जाना " ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षय है । उसको पञ्चम्यन्तपद बनाकर उससे क्षायिक ज्ञानकी उत्पत्ति होना ज्ञात कर उसे केवलज्ञानका उत्पादक हेतु समझ लिया जाय । सूत्र में समुच्चय अर्थका द्योतन कर रहा चकार पड़ा हुआ है । उससे तीन आयुमें और नामकर्मकी तेरह प्रकृतियोंका एकत्रीकरण हो जाता है। इनका भी क्षय हो जानेसे केवल यानी केवलज्ञान उपज जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि सठि प्रकृतियोंका क्षय हो जानेसे केवलज्ञान आदि होते हैं। अट्ठाईस तो मोहनीय कर्मकी प्रकृतियां हैं, पांच ज्ञानावरण की, नौ दर्शनावरण की, पांच अन्तरायकी, तथा मनुष्य आयुको छोडकर नरकआयु तिर्यञ्चआयु, देवआयु यों तीन आयुकर्म एवं साधारण आतप, पञ्चेन्द्रिय जातिसे रहित एकेंद्रिय जाति, द्विइन्द्रिय जाति, त्रिइन्द्रियजाति, चार इन्द्रियजाति, ये चार जातियां कर्म नरकगति, नरकगत्यानुपूर्व्य, स्थावर, सूक्ष्म, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य उद्योत, स्वरूप तेरह नामकर्मकी प्रकृतियां हैं। इस प्रकार जाति कर्मोंकी सैंतालीस, आयु कर्मकी तीन, नामकर्मकी तेरह, यों त्रेसठि प्रकृतियां हुई इनके क्षयसे केवलज्ञान उपजता है।
ननु मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणक्षयात, अन्तरायक्षयात्प्राप्तिः केवलस्य नृणां भवेत् ॥ १॥ वाक्यभेदः कर्मणां च क्षयाच्च परिभाषितः । प्रतिपादनमुत्क्षिप्यानुक्रमास्तच्च कोप्यसौ ॥ २ ॥ पूर्वमेवास्ति जीवस्य विज्ञेयः कर्मणां क्षयः । कर्मक्षयं विना भव्यो नो याति परमां गतिम् ॥ ३ ॥