________________
दशमोऽध्यायः
३९७)
मोहक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ॥ १॥
मोहनीयकर्मके क्षयसे तथा ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के क्षयसे आत्मामें केवलज्ञान आदि उपजते हैं । अर्थात् बारहवें गुणस्थानके आदिमें मोहनीयकर्मका निरवशेष क्षय हो जाता है । मोहका पलसाध्य क्षय करने में आत्माको विशेष परिश्रम करना पड़ता है । अतः बारहवें गुणस्थानमें अन्तर्मुहूर्त कालतक आत्मा विश्राम करता है । साथही तीन घातिकर्मोंका क्षय करनेके लिये घोर प्रयत्न भी करता जाता है। एकत्ववितर्क अवीचार नामक बलवत्तर समर्थ पुरुषार्थ हो चुकनेपर तेरहवें गुणस्थानके आदिमें ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंका क्षय कर डालता है। तव विश्वप्रकाशक केवलज्ञान सूर्य उत्पन्न हो जाता है। ज्ञानावरणके क्षय और केवलज्ञानकी उत्पत्तिका समय वही एक है । रोगोत्पादक पौद्गलिक दोषोंका विनाश और आरोग्य उत्पत्ति भिन्न कालीन नहीं है । जिस जीवके मोहका क्षय हो चुका है , या ज्ञानावरणक क्षय अनुसार केवलज्ञान उपज चुका है । उस जीवको मोक्ष होना अनिवार्य है । अतः इस सूत्रमें मोक्षके समर्थ कारण केवलज्ञान तथा केवलदर्शन आदिके भी समर्थ उत्पादक कारणोंका प्ररूपण किया गया है।
मोहस्य क्षयो विध्वंसो मोहक्षयस्तस्मात् । आवरणशब्दः प्रत्येकं प्रयुज्यते तेन ज्ञानावरणं च दर्शनावरणं च ज्ञानदर्शनावरणे तो चान्तरायश्च ज्ञानदर्शनावरणान्तरायास्तेषां क्षयो ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयस्तस्माच्चकारादायुस्त्रिकनामत्रयोदशक्षयाच्च केवलं केवलज्ञानमुत्पद्यते । त्रिषष्ठिप्रकृतिक्षयात्केवलज्ञानं भवतीत्यर्थः । अष्टाविंशतिः प्रकृतयो मोहस्य, पञ्च ज्ञानावरणस्य नव दर्शनावरणस्य पञ्चान्तरायस्य । मनुष्यायुर्वर्ण्य मायुस्त्रयं । साधारणातप पञ्चेन्द्रियरहित चतुर्जाति नरकगति, नरकगत्यानुपूर्व्य, स्थावर; सूक्ष्म, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानपूर्व्य, उद्योतलक्षणास्त्रयोदश नामकर्मणः प्रकृतयश्चेति त्रिषष्ठिः।
-- सूत्रमें कहे गये मोहके क्षयका अर्थ मोहका विध्वन्स हो जाना है अर्थात् आत्मासे बद्ध हो रहा मोहनीयकर्म आत्मीय पुरुषार्थ द्वारा निर्जीर्ण कर दिया जाता है। वह कर्म आत्मासे पृथक् होकर अन्य धूल, रेत, आदि पर्यायोंमें परिणत हो जाता है। जैसे कि सोडा, साबुन, पानी द्वारा वस्त्रसे मल छूटकर अन्य कीच, धोवन आदि पुद्गल पर्यायोंरूप परिणम जाता है । कर्म या मलका समूलचूल विनाश नहीं हो जाता है ।