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नवमोध्यायः
योग्य है । ध्यान कल्पनारूप नहीं है। और निरोध अभावरूप नहीं है, वह ध्यान अन्तमुहूर्तही ठहर सकता है। प्राणायाम आदि शारीरिक क्रियायें ध्यानस्वरूप नहीं हैं. इत्यादि सिद्धान्तोंका बढिया परामर्श किया है । ध्यान विषयके ऊहापोह भी ध्यानि योंके ही ध्येय हैं। ध्यानके चारों भेदोंमें ध्यानसामान्यका लक्षण घटित कर हेतुवाद मुद्रासे पहिलेके दो ध्यानोंको संसारका कारण और पिछले दो ध्यानोंको मोक्षका कारण सिद्ध किया है। आर्तध्यान और रौद्रध्यानके भेदोंमें युक्तियां प्रदर्शित की हैं। धर्म्यध्यानके भेदोंका विवरण कर शुक्लध्यानका सूत्रानुसार युक्तिपूर्ण विवेचन किया गया है । कतिपय स्थलोंपर राजवात्तिक ग्रन्थसे तात्त्विक सम्मेलन हो जाता है। वितर्क और विचारका विचार कर शुक्लध्यानके स्वामियोंका प्ररूपण करते हुये ग्रन्थकारने केवलज्ञानीके भी मुख्यरूपसे ध्यान होना पुष्ट किया है, जो कि हृदयाकर्षक है । ग्रन्थकार स्याद्वादनीतिको साथ साथही पुष्ट करते जाते हैं। यों नौमें अध्यायका पहिला आन्हिक समाप्त किया गया है। दूसरे आन्हिककी आदिमें सम्यग्दृष्टि आदिकी असं ख्यात गुणी निर्जरा होने में युक्तियोंको दिखलाते हुये ग्रन्थकारने सभी संयमी तपस्वियोंका नैगमनय अनुसार निर्ग्रन्थपना प्रदर्शित किया है । व्यवहार और निश्चय नयसे भी पुलाक आदि पांचो निर्ग्रन्य हैं । वस्त्र, पात्र, दण्ड, कम्बल आदिका ग्रहण करनेवाले साधुओंका मोहीपना और मूर्छासहितपना पुष्ट किया है। ऐसे साध्वाभास कभी निर्ग्रन्थ नहीं कहे जा सकते हैं। इन मोही साधुओंसे विचारे गृहस्थ हजार गुणे अच्छे हैं । तभी तो श्री समन्तभद्र आचार्यने " गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् , अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः " मोही साधु पतित है, मिथ्यादृष्टि है, गृहस्थ पांचवें गुणस्थानमें है! शून्यसे एकको कितना भी गुणा कहा जाय वह गुणाकार अल्पोयान् ही रहेगा। राजवात्तिक ग्रन्थके समान यहां भी कुछ शंकायें की गई हैं। उनका युक्तिपूर्वक निराकरण कर दिया गया है। " संयमश्रुत " आदि सूत्रके विवरणमें कुछ लिपिकी अशुद्धियां हैं । प्रतिभाशाली विद्वान् लिपिकर्ताओंपर दया करते हुये ग्रन्थको शुद्ध कर लेवें । यहां उपकरण वकुशकी अपेक्षा मुनिके कदाचित् वस्त्रका ग्रहण करना आभासित होता है । जो कि दिगम्बर सम्प्रदाय अनुसार सत्यार्थ नहीं है । स्वयं ग्रन्थकारने पुलाकवकुश " आदि सूत्र में वस्त्र आदिका अखण्ड युक्तियोंसे खण्डन किया है।