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तत्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
मोक्षतत्व" व्यवस्थित नहीं है । क्षायिक भाव सिद्धोंकी आत्मा ही हैं। रत्नत्रय या वीर्य, सूक्ष्मत्व आदि गुण इनहीमें गर्भित हो जाते हैं। अथवा ये उत्तम क्षमा आदि धर्म भी उन सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंमें लीन हो जाते हैं। राजवात्तिकमें अनन्तवीय अनन्तसुख, चारित्र आदिका इन्हीं गुणोंमें अन्तर्भाव बताया है। वस्तुतः ये सम्पूर्ण गुण या धर्म स्वतंत्र होकर अनन्त हैं। केवल गिनतीका संकोच कर अन्तर्भाव करना रुचि न होते हुये भी लिख दिया है । जैसे कि बन्धन और संघात ये दश कर्मप्रकृतियां सर्वथा भिन्न हैं फिर भी बन्ध और उदयअवस्थामें शरीर कर्ममें ही अभिन्न गिन ली गई है। यों गिननेसे क्या तत्वनिन्हव हो सकता है ? कभी नहीं।
आप लोग विचार सकते है कि — ॐ हीं परब्रम्हणे उत्तमक्षमाधौगाय नमः' यहां मंत्रोंमें क्षमा, ब्रम्हचर्य आदि धर्मोके साथ ही परब्रम्ह शब्द लगाया गया है । ईर्यासमिति, भाषासमिति, परीषहजय, प्रतिक्रमण, शुक्ल ध्यान, आलोचन आदिको परब्रम्ह क्यों नहीं कहा जाता है ? इसमें अवश्य रहस्य है। सिद्धान्त यह है कि ईर्यासमिति, प्रतिक्रमण, आलोचो. आदितों छठे गुणस्थानतकही पाये जाते है। सामायिक नौवेंतक है । परीषहजय बारहवें तक है। यों ये सब संसार अवस्थायें है । किन्तु ये धर्म तो मोक्षस्वरूप अन्तिम लक्ष्य हैं । व्यवहार रत्नत्रय भी इनका साधन है परम साध्य नहीं है । माघ, चैत्र, भाद्रपदमें इन धर्मोंका पूजन, स्तवन, चिंतन, ध्यान करनेसे पूरे वर्ष भर संस्कार बना रहता है। इससे भी बढकर पूरे जन्मभर तक, यह भी नहीं मोक्ष होनेतक असंख्य भवोंमें और यहांतक कि मोक्ष हो चुकनेपर भी अनन्तकाल ये धर्म टिके रहेंगे। . ऐसे अक्षयनिधिको अपनाना प्रत्येक मुमुक्षुका प्रधान कर्तव्य है जो कि अपनी आत्माम ही रक्खी हुई है, कहीं बाहरसे लाना नहीं है। केवल व्यक्त करना है। बस यह काय कर लिया-तो बाजी जीत ली समझो।
॥ ॐ धर्मस्वरूपपरमब्रम्हसिद्धेभ्यो नमः ॥ बारह अनुप्रेक्षाओंके विषय अनित्यपन आदि धर्मोका तात्त्विकपन पुष्ट किया है। परीषहोंके लक्षण, भेद, स्वामियों और कारणोंको युक्तिपूर्वक दर्शाया है । अनन्तर पांच चारित्र और बारह तपांका वर्णन किया है। व्युत्सर्ग, दान, परिग्रहनिवृत्ति त्याग इनके पृथग्भावपर विचार किया गया है , ध्यानका बढिया विवेचन करते हुये कापिलोंके मन्तव्यका निराकरण किया गया है, इस स्थलका खण्डन, मण्डन अतीव मनन करने