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नवमोध्यायः
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गर्भाशयमें आ गये जीवको कितनेही अव्यक्त अबुद्धि-अनिच्छापूर्वक कार्य स्वकीय प्रयत्नों करने पडते हैं। तभी विविध प्रकारके फल, फूल, अन्न, गन्ना, औषधियोंका स्वरूप तैयार होता है। गर्भस्थित जीव अपने पर्याप्ति या अन्य प्रयत्नोंसे हड्डी, मांस, रुधिर, नाक, कान आदि अवयवोंको बना डालता है। यह विचित्र जगत तो जीव अजीवकी चमत्कारिक अर्थक्रियाओंका ही परिणाम है।
जलबिन्दुको ऊपरसे गोल मटोल बना रहनेके लिये या लवणसमुद्रके पानीको हजारों योजन ऊंचा उठा रहने के लिये, तथा आगको अग्नि ज्वालाओंको ऊपर फेंकते रहनेके लिये एपं वायुको तिरछा फैलनेके लिये भीतरी अनेक कोशिशें करनी पडती हैं । जीवके यत्नको पुरुषार्थ कह देते हैं। जडकी कोशिशको सामर्थ्य कह देते हैं। संक्षेपमें यही कहना है कि सिद्धभगवान कोई 'वस्तु ' से न्यारे नहीं है। संसारी जीव या अजीव तत्वोंके समान सिद्धोंको भी निज निष्ठा बनाये रखनेके लिये पुरुषार्थ करना अनिवार्य है। कारण रूप मोक्ष पुरुषार्थ सम्यग्दर्शन अवस्थासे शुरू हो जाता है । और साध्यस्वरूप मोक्ष पुरुषार्थ सिद्धोंमें पाया जाता है । सिद्ध निठले नहीं बैठे है । किदकिच्चा' सिद्धोंको जो कृतकृत्य कहा है उसका तात्पर्य इतनाही है कि वे लौकिक वाणिज्य, देवपूजन, स्वाध्याय, खेलना, कूदना, अध्ययन, भोजन, शयन, कर्मबन्ध, योग कषाय आदि कार्योंको करचुके हैं। ये कार्य अब उन्हें आगे नहीं करना है। किन्तु सिद्ध सभी कार्योंसे मुक्त नहीं अन्यथा वहां 'वस्तुत्व ' ही प्रतिष्ठित नहीं रह सकेगा। - दशवां धर्म ब्रम्हचर्य है। शद्ध चिदात्मक परमब्रम्हमें चर्या करना यह ब्रम्हचर्य तो शुद्ध परमात्मामें ही घटित होता हैं। तभी तो अठारह हजार शीलोंके भेदोंका स्वामित्व होना चौदहवें गुणस्थानमें माना गया है। स्वस्त्रीपरस्त्रीत्याग या स्वपरपति भी कोई कल्पित धर्म नहीं है, वास्तविक भाव द्रव्य आत्मक धर्म हैं। न्याय ग्रन्थोंमें अभावको भावस्वरूप सिद्ध किया है ।
प्रत्येक द्रव्यमें अनन्त गुण हैं । सिद्धपरमात्मा भी शुद्ध द्रव्य है । अतः उनमें अपरिमित गुण भरें हुये हैं। यदि इन सिद्ध गति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व अनाहार, उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव ब्रम्हचर्य, अस्तित्व, वस्तुत्व आदि क्षायिक या पारिणामिक भावोंको सिद्धोंमें नहीं माना जाय तो फिर मुक्तजीव आकाश-कुसुम समान कुछ नहीं रहते हैं। " बौद्धोंका प्रदीपनिर्वाण सम आत्माका निर्वाण हो जाना