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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
तात्पर्य यह है कि भावोंके समान अभावोंका भी साम्राज्य सर्वत्र छा रहा है आप भावोंके कार्योंको देखते आ रहे है किन्तु अभावोंके कार्योंका विस्तार बहुत बढा हुआ है । सम्पूर्ण कार्यों में केवलान्वयी होकर प्रतिबन्धकाभावको कारण माना गया है । अभाव उन बडे २ कार्योंको साधते हैं जो कि भाव कारणोंके द्वारा कालत्रयमें नहीं हो सकते हैं । असम्भव हैं, जैन न्यायग्रन्थों में इस तत्वका अति सुन्दर विवेचन किया गया है । यों ' भावाभावैर्गुम्फितं वस्तु । ' प्रत्येक वस्तु अनन्तानन्त भाव और अभावों के साथ तदात्मक होकर गुंथ रही है ।
' मेरा कुछ नहीं और मैं किसीका नहीं यह नौवां आकिंचन धर्मं तो पूर्णरीत्या सिद्धों में ही मिलेगा जब कि अरहन्तोंके भी आठ प्रातिहार्य, परमौदारिक शरीर, सुस्वरप्रकृतिका उदय अनेक उपाधियां लग रही हैं । सिद्धोंका आत्मा निजस्वरूप बना रहे, पर पदार्थपर ही रहें ! इस अर्थक्रियाके लिये किसी स्वभावका वहां बैठे रहना अनिवार्य । एक बात यह भी ध्यान में रखनेकी है कि प्रत्येक सत् वस्तु अर्थ क्रियाओंको करती है, मुक्त हो चुके सिद्धभगवानको भी स्वोचित क्रियायें करनी पडती है । जनसिद्धान्तमें पुरुषार्थ चार माने गये हैं। पुरुष यानी आत्माका अर्थ यानी प्रयोजन या कर्तव्य इसको पुरुषार्थ कहते हैं । असि, कृषि, वाणिज्य, अध्यापन आदि द्वारा न्यायपूर्वक अर्थोपार्जन करना अर्थपुरुषार्थ है । तलवार, व्यापार, शिल्प, गायन आदि साधनों किये गये अर्थ पुरुषार्थके अनेक भेद हैं । इन्द्रियोंके भोग्य - उपभोग्य माने गये अथवा जलक्रीडा, दौलत, नाच देखना, रतिक्रिया आदि उपायोंसे हुये काम पुरुषार्थ के भी अनेक प्रकार हैं । तथा पूजन, दान, ईर्ष्या, व्रतपालन, सत्य भाषण, उपवास, दीक्षा लेना आदि रूपसे धर्म पुरुषार्थके अनेक भेद हैं । उसी प्रकार सिद्ध लोकमें निश्चय रत्नत्रय स्वार्थ निष्ठा, आत्मगुणों को भरपूर बनाए रखना लोकाग्र निवास, कर्मबन्ध नहीं होने देना, उत्तम ब्रम्हचर्य रक्षित रखना, उत्तगक्षमा अहिंसा आदि मोक्ष पुरुषार्थ अनेकविध हो रहे हैं ।
सिद्धों के अगुरुलघुगुण या अन्य गुण कोई खाली नहीं बैठे है । स्वल्प भी ढील कर देनेपर भिन्न डाकुओंके द्वारा छापा मार देनेका अंदेशा है। आपको क्या पता है कि पुरुषार्थियों को क्या २ कार्य करने पडते हैं, तब कही अर्थक्रियाये हो पाती है । किसान बीज डालकर अलग हो जाता है । फिर भूमिके भीतर बीजमें जन्म ले चुके जीवको या