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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
भगवती आराधना मूल ग्रन्थमें साधु के वस्त्रका ग्रहण देखा नहीं गया है। "आचेलक्कुदेसिय सेज्जा हरराय पिण्ड किरियम्मे, वद जेट्ट पडिक्कमणे मासं पज्जो सवणकप्पो' यह चारसौ छब्बीस (४२६) वी गाथा है। मूलमें आचेलक्यपद पड़ा हुआ है । सर्वथा वस्त्रके त्यागको आचेलक्य कहते हैं। जब परिग्रहका त्याम हुआ तो वस्त्रका त्याग अवश्यंभावी है । वस्त्रके ग्रहण करनेसे संयम पल नहीं सकता है । वस्त्रमें पसेव, रज, मल लग जानेसे त्रस जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है। वस्त्रके दबनेसे, मसलनेसे, त्रस जीवोंकी हिंसा होवेगी। वस्त्रमें मल, रुधिर, पसीना लग जानेपर पुनः धोया जायगा तो साधुके महान् असंयम होगा, नहीं धोवे तो अपने और दूसरेके ग्लानिका कारण होय । वस्त्रको कोई चुराले जाय तो क्रोध होय, लज्जा उपजे यह भावहिंसा हुई । लज्जावश ग्राम, नगर आदिमें जा नहीं सकते, वस्त्रको दूसरेसे मांगें तो दीनता उपजे, सुन्दर बढिया वस्त्र मिले तो अभिमान हो जाय, मोटा, खोटा मिले तो परिणामोंमें दीनता होय, वस्त्रके रखनेसे चोर आदिका डर है, वायुके द्वारा वस्त्र उडे तो पुनः अंग ढकनेका विकल्प हो जाय ऐसी दशामें स्वाध्याय, जप, ध्यानका भंग होय, यों सीवना, समेटना, उतारना, धोना, मांगना आदि द्वारा महान् पापबन्धका कारण वस्त्र है। जब मुनिका शरीरसेही ममत्व नहीं है, तो फिर वस्त्र क्यों ग्रहण करने लगे ? मुनि महा. राजकी सिंहवृत्ति है । वे दीनता, हीनता, याचकताको कदाचित् भी धारण नहीं करते हैं। यद्यपि ग्रन्थोंमें आर्यिका साध्वीके सोलह हाथकी साडी रखनेका विधान है। तथापि उसको निर्ग्रन्थ नहीं माना गया है। आर्यिकाका प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय है। तीर्थंकर महाराजको भलेही पूर्ण वैराग्य हो जाय, लोकान्तिक देव आकर उनके निष्कमण कल्याणककी स्तुति करें। फिर भी वनमें जाकर केशलोंच कर लेनेपरही आत्मध्यान करते हुये उनके सातवां गुणस्थान और मनःपर्ययज्ञान युगपत् होता है । स्त्रियोंके सचेल संयम है जो कि मोक्षका कारण नहीं है। ऋद्धिविशेषोंका भी हेतु नहीं है । सचेलसंयमसे जब सांसारिक ऋद्धियांही प्राप्त नहीं हो पाती हैं । तो निःशेषकर्मोका क्षय हो जाना स्वरूप मोक्ष तो कैसे मिल सकता है ? " स्त्रियो न मोक्षहेतुसंयमवत्यः साधूनामवन्द्यत्वाद्गृहस्थवत् " न चात्रासिद्धो हेतुः “ वरसमयदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खि
ओ साह, अभिगमण वंदणणमंसण विणएण सो पुज्जो" इत्यभिधानात् । बाह्याभ्यन्तर परिग्रहवत्वाच्च न तास्तद्वत्यस्तद्वत् । (प्रमेयकमलमार्तण्ड:) वस्त्रग्रहण आदि बाह्य परिग्रहसे अन्तरंगके शरीरानुर'ग आदि परिग्रहका अनुमान कर दिया जाता है । यदि कोई