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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
होनेके पहिले कषायरहित हो चुका है अतः मुक्तके समान ग्यारहवें गुणस्थान मे कषायसहित पनका अयोग है, ग्यारहवें सद्य का एक समय स्थितिबाला बंध हो रहा और क्रोधादि कषायोंका सत्ता में रहना विवक्षित नहीं है अथवा सम्पूर्ण कर्मोकी अपेक्षा नहीं कर किन्तु व्यस्त कर्मोंकी अपेक्षा जीवको कर्मरहित माना जा सकता है । अनन्तानुबंधी का विसंयोजन कर सर्वथा अनन्तानुबंधो से रहित हो चुका जीव पुन: पहिले दुसरे गुगास्थानों में लौट कर सकषाय हो जानेसे अनन्तानुबन्धी का बंध कर लेता है। उच्चगोत्र का नाशकर उच्चगोत्र की अपेक्षा अकर्मक हो रहा जीवं पुनः उच्चगोत्र या नीच गोत्र का आस्रव कर लेता है, यों भिन्न भिन्न प्रकृतियोंका विसंयोजन, सर्व संक्रमण कर या भुज्यमान आयुको भोगकर पुनः बद्धव्य कर्मोके अनुसार सकषाय होकर जीव उन उन कर्मोको नवीन रूपसे बांधता है। इसीप्रकार दुसरे वाक्य से भी "कर्मयोग्यपुद्गलादानात्पूर्वमकषायस्य" ऐसा पाठ है, यहाँ भी व्यक्तिरूपसे कषायरहितपन या कर्मरहितपन की सिद्धी करली जाय । क्षीणकषाय, सयोग केवली, अयोग केवली और मुक्त जीव तो पुनः कभी न कषायसहित होते हैं न कर्मों को बांधते हैं। हां उपशांत कषायवाला मुनि तो अनेक भवोंतक कर्मोको बांध सकता है,तिस कारण इस सूत्रद्वारा यों कह दिया गया गया है कि जीव और कर्मका अनादिकालसे बंध है, पूर्वबद्ध क्रोधादि कर्मों के उदयसे जीव वर्तमानमे कषायसहित हो जाता है, वह सकषाय संसारी यहां जीव पद से लिया गया है, जैसे बीज से वृक्ष और वृक्षसे बीज यों धाराप्रवाह रूपेण अनादिकालसे कार्यकारण. भाव चला आ रहा है, उसी प्रकार पहिले बांधे हुये कर्मोसे जीव वर्तमान मे कषायसहित हो जाता है और इस कषायसहितपनसे बांध लिये गये कर्मों करके पुनः कषायसहित होगा, अथवा पहिले खाये पिये गये पदार्थोंकी बन गये लारपित्त, अनुसार अब खाया पिया जाता है और इस खाये गये से पुनः बननेवाली लार आदिसे पीछे खाया जायेगा यों प्रवाह रूपसे हेतु हेतुमद्भाव में कोई अन्योन्याश्रय दोष नहीं है। कारण कि व्यक्ति रूपसे निर्दोष कार्यकारण भाव वन रहा है, जिस बीज से जो अंकुर उपजता है उसी अंकुर से पहिला बीज नही उपजता है, जिससे कि परस्पराश्रय दोष हो जाता। बात यह कि जीवका कषायसहितपना भावबंध स्वरूप है और कर्म बनने योग्य पुद्गलोंका ग्रहण हो जाना द्रव्यबंध स्वरूप है, भावबंध निमित्त कारण है और द्रव्यबंध उस निमित्तसे उपजा नैमित्तिक परिणाम है, जैसे कि बीज निमित्त और अंकुर नैमित्तिक है, अंकुर बहुत काल पीछे वृक्ष होकर पुनः पुष्पित, फलित होता हुआ कालांतरमे पककर बीज बनेगा। इसी प्रकार क्रोध आदि