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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
____इन दश धर्मों में सभीके पहिले 'उत्तम' शब्द पड़ा हुआ है जो की इस लोक या परलोकके सुखप्रद अभ्युदयोंकी अपेक्षासे किये गये व्यवहारी जघन्य, मध्यम, धर्मोका व्यावर्तक है । भावार्थ-व्यावहारिक क्षमा, मार्दव, आदि धर्म संसारी जीवोंके भी पाये जाते हैं जो कि परम भाव माने गये उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि धर्मोंके संपादक है । साधनोंसे साध्य न्यारा है या परिमार्जित है।
चारित्रगुणस्वरूप उत्तम क्षमा आदिको यों परब्रम्हमय समझिये कि आत्माकी वैभाविक परिणतिको करनेवाले चारों प्रकारके क्रोध कर्मोका उदय हो जानेपर आत्मा अपने क्षमाभावसे च्युत हो जाता है। क्रोधको आत्मीय पुरुषार्थ द्वारा नहीं उपजने देना क्षमा है । मुनियोंमें क्षमा पाई जाती है किन्तु दशवें गुणस्थानमें क्रोधका उदय हट जानेपर उत्कृष्ट क्षमा हो जाती है तथा आनुषङ्गिक दोषोंके भी टल जानेपर चौदहवें गुणस्थानके अन्तमें ( सिद्धोंकी क्षमा ) अत्यन्त उत्कृष्ट उत्तम क्षमा है। गुणकी परम स्वाभाविक परिणति कर्मकलंक रहित सिद्ध अवस्थामें पाई जाती है तभी तो क्षमाके लिये " ध्यान कोटि समा क्षमा " यह लिखा गया हैं। करोड शुभध्यानोंके बराबर एक क्षमा है । उत्तम ध्यान माने गये धर्म्य ध्यान और शुक्लध्यानसे भी क्षमा कोटिगुणी उपादेय है। ध्यान तो संसार अवस्था है, सातवें गुणस्थानतक ही धम्य ध्यान है तथा एक अर्थमें चिन्ताओंको रोककर शुद्ध आत्म--संबंधी लम्बे२ नयज्ञानोंके पिण्ड हो रहे श्रुतज्ञानोंका समुदायस्वरूप शुक्लध्यान भी बारहवें गुण-स्थान तक ही पाया जाता है । उत्तमक्षमा तो इन गुणस्थानोंमें पूर्णक्षमाके अनन्तवें भाग मात्र है । वस्तुतः अनन्तानन्त अविभाग प्रतिछेदोंके धारी उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जवशील, केवलज्ञान आदि क्षायिक भाव तो अनन्तकालतक पूर्णरीत्या सिद्ध परमात्माओंके ही पाये जाते हैं। क्षायिक भाव
और पारमाणिक भावोंका अखण्ड समुदाय ही सिद्ध परमात्मा है । यों चारित्र मोहनीय माने गये क्रोध, मान माया, लोभ नामक कर्मों के क्षयसे हुए ये उत्तम क्षमा, मार्दवा आर्जव, शौच धर्म भी केवलज्ञान क्षायिक सम्यक्त्वके समान अक्षय अनन्तानन्तकालतक शुद्ध परमात्मास्वरूप होकर मुक्तात्माओंमें तदवस्थ जडे हुए हैं।
असदभिधानरूप झूठे वचनका त्याग करना सत्यव्रत है । पांववां निश्चय सत्यधर्म इससे भी कहीं ऊंचा आत्मतत्व है तथा ' अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रम्हपरमम्' समन्तभद्राचार्यकी इस उक्ति के अनुसार अहिंसाके समान सत्य भी शुद्र सिद्ध परमेष्ठीका