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नवमोध्यायः
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अनन्त अविनाशी धर्म है । ' सत्सु साधु सत्यं ' जो सज्जनोंमें साधु है वह सत्य है, तीर्थंकरसे अधिक सज्जन अन्य कौन हो सकते हैं, तीर्थंकर भगवान दीक्षा के समय या आगे पीछे भी सत्य सिद्धोंको नमस्कार करते हैं । छठे संयमके विषयमें यों विचार कीजिये कि व्रत --धारण, समिति -- पालन, कषायनिग्रह, इन्द्रिय-जय, योगनिरोधरूप व्यव - हार संयम तो श्रावक या मुनिवरोंमें पाया पाता है । इन्द्रियसंयम या प्राणसंयम भी व्रतियोंमें मिलता है । हां, क्षायिकलब्धि या क्षायिक उपयोग स्वरूप इन्द्रियोंको स्वायत्त रखना, अथवा सुख सत्ता, चैतन्य, बोध इन भाव प्राणोंकी बाल २ रक्षा करना बडे भारी पुरुषका कार्य है । इस कामको सिद्ध भगवान विना इच्छाके स्वभावतः अनुरक्षण करते रहते हैं । जैसे कोई पहलवान शरीरग्वयवों, धातु उपधातुओंको यत्न द्वारा यथास्थान स्थिर रखता है । इस मल्लके कार्य में भले ही कुछ इच्छाका योग भी है किन्तु मुक्त जीवोंके मोहकर्मजन्य इच्छा नहीं है । हां, ज्ञान और प्रयत्न हैं । टोटल ऐसा है कि जगत्का एक कार्य इच्छासे होता है और अनन्त कार्य बिना इच्छा के स्वकारणोंसे होते रहते हैं । पैंतालीस लाख योजन परिमित ऊपरले तनु वातवलय में विराजमान हो रहे और भूतकालीन समयोंसे असंख्यातवें भाग नामक अनन्तानन्त संख्यावाले सिद्ध भगवान स्वकीय निरिच्छ छत्रच्छायासे त्रस स्थावर जीवोंकी रक्षा कैसे करते हैं ? अथवा rain आत्मीय गुण या मोक्षमार्गपर उदासीन कारण होकर कैसे लगा देते हैं ? इस सिद्धान्तको पुष्ट करनेके लिये एक स्वतंत्र लम्बा लेख अपेक्षणीय है ।
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श्री राजवार्तिक में एकेंद्रिय आदि प्राणियोंकी पीडाका परिहार और इन्द्रिय विषयोंमें आसक्ति नहीं करना संयम माना है । ये अभावात्मक प्रतिजीवी गुण जैसे सिद्धों में निवसते हैं वैसे मुनियोंमें तो क्या क्षपकश्रेणीमें भी नहीं पाये जाते हैं । गृहस्थोंकी तो बात ही क्या है, अज्ञान या अशक्यानुष्ठान होनेके कारण क्षपकश्रेणीमें भी उत्तम समय नहीं पल पाता है। क्षपक श्रेणी भी तो संसार है । मुमुक्षु जीव क्षपक श्रेणीको प्राप्त कर पुनः छोड देता है । तब कहीं आगे के पुरुषार्थों द्वारा वह मोक्ष प्राप्त कर पाता है । सातवें तपो धर्मका विवरण यों है कि कर्मोंकी निर्जरा हो जाय या पुनः कर्मों का सम्बन्ध न हो जाय एतदर्थ तप करना पडता है । व्यावहारिक बाह्य और आभ्यन्तर बारह तप तो सिद्धोंमें नहीं है । किन्तु पुनः योग और कषायका प्रकरण नहीं
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