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तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
यम, नियम ये सम्यक्चारित्रके कार्य और कारण भी है। नौ देवोंकी नित्य नैमित्तिक पूजनसे मोक्ष मार्ग माने गये रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है ।
भाद्रपद दशलक्षण पर्व में बहुभाग जैन बन्धु जिनचैत्यालय में जो दशधर्मोकी पूजा करते हैं वह नैमित्तिक पूजा है । गृहस्थके आवश्यकों के अनुसार प्रतिदिन जो पूजा की जाती है वह नित्यमह है !
जैन में कितनेही पर्व या पुण्य दिवस, पूर्व कालोंसे चले आ रहे हैं । उनमें यथायोग्य नव देवताओंका पूजन किया जाता है ।
वीर निर्वाण दिवस, नन्दीश्वर पर्व आदिमें मुख्य रूपसे जिनेन्द्रदेव या प्रतिमा देवताकी पूजा की जाती है । श्रुतपंचमीको जिनागम देवकी अर्चा प्रधानतया होती है । सम्मेदशिखर, सोनागिर, पावापुर आदिकी वन्दना करते समय चैत्यालयदेवकी या वहांसे मोक्ष गये सिद्धोंकी अर्चा होती है । रक्षाबन्धन ( सलूना) के दिन तो विशेष पूजा की जाती है वह गुरुपूजा है । अर्थात् विष्णुकुमार अकंपन आदि आचार्य, उपाध्याय, साधुओंकी पूजा है | दशलक्षण पर्व में ती उत्तम क्षमा आदि या रत्नत्रय आदि पूजनकी मुख्यता है । अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनधर्म, जिना - गम, जिनचैत्य और जिन चैत्यालय इन नव देवताओंमें पांच परमेष्ठी तो जीव तत्व हैं । और चैत्यालय पुद्गल तत्व हैं । सिद्धोंकें विना चार परमेष्ठियों के प्रतिपादित वचन और श्रुतज्ञानको जिनागम कहते हैं । धर्म देवता तो वस्तु स्वभाव, जीवदया, व्रतधारण, व्यवहार रत्नत्रय, सामायिक, गुप्ति, उपशम श्रेणि, क्षपकश्रेणि, इन अवस्थाओंको पार करता हुआ, उत्तम क्षमा, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, केवलज्ञान, शुद्ध चारित्र, अव्याबाध आदि रूप हो रहा जीवस्वभाव ही है । सचित्त अचित्त द्रव्यों या भावों द्वारा नौ देवोंकी पूजा करनेवालोंको परिशेषमें आठ देवताओंका परित्याग करना पडेगा । ऊंची ध्यान अवस्था में निज - आत्म स्वरूप धर्मदेवताकी ही उपासना की जायगी तब मोक्ष प्राप्त होगी । मोक्ष हो चुकनेपर भी शुद्ध धर्मदेवही वहां सर्वदा स्वरस स्वानुभूत सच्चिदानन्दमय अनुभूत होते रहेंगे । निश्चयधर्म और व्यवहार धर्मके भेद आत्मीय धर्म दो प्रकार का है । पूजन ईर्यासमिति, ब्रम्हचर्याणुव्रत, मुनि दान व्युत्सर्ग, अनशन, वैयावृत्य, परीषहजय, परिहार, विशुद्धि आदि ये निचले गुणस्थानोंमें पाये जानेवाली