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नवमोध्यायः
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विविध आकारवाले कहे जा चुके तप, करके शुद्धात्मसंबंधी अनेक संयम विशुद्धियोंकी वृद्धिके वशसें निर्जरा हो जाती है । इस सिद्धान्तको संशयरहित होकर स्वीकार कर लेना चाहिये । इस प्रकार यहांतक तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकालंकार नामक महान् ग्रंथमें नौमे अध्यायका दूसरा प्रकरण समुदाय स्वरूप आन्हिक समाप्त हो चुका है । कृतधियः संवरनिर्जरानिःश्रेणीमासाद्याग्रिम मोक्षप्रासादमारोहन्तु । इति श्री विद्यानन्द आचार्य विरचिते तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
__नवमोऽध्यायः समाप्तः ॥९॥ इस प्रकार यहां तक श्री विद्यानन्द आचार्य महाराजके द्वारा विशेष उत्साहपूर्वक रचे गये तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकालंकार नामक महान ग्रन्थमें नौवा अध्याय परिपूर्ण हो चुका है। --इस नौमे अध्यायके प्रकरणोंकी संक्षेपसे सूचना इस प्रकार है कि प्रथमही संवरका लक्षण करते हुये निरोध और संवरका सामानाधिकरण्य निरुक्ति अनुसार बताया गया है । बंधके निरोधको संवरपनेका निषेध किया है, द्रव्यसंवर और भावसंवरका विचार करते हुये गुणस्थानोंकी चर्चा की है। तेरहवें तक देश संवर और चौदहवें गुणस्थानमें पूर्ण संवर होना बताया है। संवरके गुप्ति आदि कारणोंका हेतुहेतुमद्भाव पोषते हुये तपसे निर्जराका होना भी युक्ति सिद्ध किया है। सूत्रानुसार गुप्ति, समिति और धर्मोंकी ऊहापोहपूर्वक प्रतिपत्ति कराई हैं। आठ शुद्धियोंका विवरण करते हुये मुनिकी पांच भिक्षावृत्तियोंका दिग्दर्शन किया है ।
जैन समाजमें पूजन करना अच्छा प्रचलित है । देव, गुरु, शास्त्र अथवा अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनधर्म, जिनागम जिनचैत्य, जिनचैत्यालय, इन नौ देवोंकी अर्चा करनेसे. सम्यग्दर्शन पुष्ट होता है । देव पूजनमें सभी व्यवहारधर्म गभित हैं। जैसे कि विश्वासघातमें सम्पूर्ण पाप छिपे हुये है।।
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभूताम् ।
श्री समन्तभद्राचार्य के प्रमाणवाक्यानुसार कही गयी सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा पूजनों द्वारा होती है। पूजा करना सम्यग्दर्शनका कार्य भी है और कारण भी हैं । जैसे कि आप्तका उपदेश सम्यग्ज्ञानका कार्य और कारण है अथवा