________________
३७८)
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
#
है कि पुलाक मुनिका मरकर जन्म होना स्वरूप उपपाद उत्कृष्ट रूपसे उत्कृष्टस्थितिवाले देवों में सहस्त्रार स्वर्ग में होता है । वकुश और प्रतिसेवना कुशील साधुओंका आरण, अच्युत, स्वर्गोंमें बाईससागरोपमस्थितिवाले देवोंमें उत्कृष्टतया होगा । कषायकुशील और निर्ग्रन्थ मुनिवरोंका उपपाद तो तैंतीस सागरोपम स्थितिको धारनेवाले देवोंमें सर्वार्थसिद्धि विमानमें होगा । सभी पुलाक वकुश कुशील मुनियोंका जघन्य रूपेण उपपाद तो दो सागरोपम स्थितिवाले देवों में सौधर्म कल्प में होगा । स्नातक मुनिका तो पंडित पंडितमरण निर्वाण है । निर्ग्रन्थ और स्नातकोंका पुनर्जन्म होता ही नहीं है आठमे स्थान अनुयोगका मुनियोंमें परामर्श कीजिये कि कषायके उदय, उपशम, क्षमको निमित्त पाकर हो रहे सन्ते असंख्याते संयम स्थानोंमें पुलाक और कषायकुशील मुनियोंके सम्पूर्ण जघन्य विशुद्धिको लिये हुये लब्धिस्थान होते हैं । वे दोनोंही ऊपर ऊपर रची हुयी लब्धिस्थानोंमें कुछ दूरतक दोनों साथ साथ युगपत् चलतें हैं । इसके पश्चात् पुलाककी व्युच्छित्ति हो जाती है । यानी पुलाक इससे अधिक ऊंचा संयमस्थानोंपर नहीं चढ पाता है। उससे ऊपर कषायकुशील ( वकुश होना चाहिये ) अकेलाही जाता है, कतिपय स्थानोंपर चढकर उससे ऊपर कषायकुशील, प्रतिसेवना कुशील और वकुश मुनिवर्य साथ साथ असंख्याते लब्धिस्थानोंपर चलते हैं । पहिले वकुशकी व्युच्छित्ति हो जाती है । उससे भी ऊपर असंख्याते संयमस्थानोंपर जाकर वहांसे प्रतिसेवना कुशीलकी व्युच्छित्ति हो जाती है। उससे भी अधिकतर असंख्या संयमस्थानोंपर चलकर कषायकुशील व्युच्छिन्न हो जाता है । उनसे ऊपर निर्ग्रन्थ मुनि कषायरहितजन्य संयमस्थानोंको प्राप्त करता है । वह भी बारहमें गुणस्थान में पाये जानेवाले असंख्याते लब्धिस्थानोंतक जाकर व्युच्छिन्न हो जाता है । उसके ऊपर अन्तिम एक संयम स्थानको चलकर स्नातक मुनिवरेण्य निर्वाणको प्राप्त हो जाता हैं । उस समय संपलब्धि, अनन्तानन्त गुणी हो जाती है । इस प्रकार नौमे अध्यायमें श्री उमास्वामी करके सूत्रोंद्वारा रची गयी संवर और निर्जराकी सिद्धिका प्रकरण संकोच करते हुये, ग्रन्यकार श्री विद्यानन्दस्वामी अग्रिम शार्दूलविक्रीडित छन्दमें निरूपण करते हैं । कि " इस प्रकार नौमे अध्यायमें कहे जा चुके क्रमके वशसे जिस प्रकार कर्मास्रवोंके प्रतिपक्षीपनको धार रहे और मोटी सामर्थ्यको रखनेवाले गुप्ति, समिति आदि परिणaियों करके संवर होता सिद्ध हो जाता है, उसी प्रकार धीर वीर तपस्वी आत्माका