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नवमोध्यायः
दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओंमें तत्पर हो रहें है । इन्द्र बृहस्पति आदि देवों करके स्तुति किये जा चुके हैं तथा जो ऋषिवर ज्ञानसमुद्र में अवगाह कर रहे हैं । वें पुलाक आदि ऋषि मेरे बहुतसे अनन्त दुष्ट कर्म रूप गढके हरनेमें क्या समर्थ नहीं होंगे ? अपितु कल्याणों को देनेवाले वे महर्षि मेरे दुःखसे अन्त हो जाने योग्य अनन्त कर्मोंका विनाश कर ही देंगें । संयमियोंका प्ररूपण करते हुये ग्रन्थकारने नौमे अध्यायके अन्त में यह मंगलाचरणश्लोक कह दिया गया है ।
इति नवमाध्यायस्य द्वितीयमान्हिकम् ॥
यहां तक श्री उमास्वामिविरचित तत्त्वार्थसूत्र के नौमे अध्यायका श्री विद्यानन्द स्वामी संदर्भित श्लोकवार्तिक महान् ग्रन्थ में नवम अध्याय सम्बन्धी द्वितीय आन्हिक समाप्त हो चुका है । इस विषयकी उत्कट गवेषणासे प्रेरित होकर मैंने स्वकीय शिष्य पंडित लोकनाथ शास्त्रीद्वारा मूडबिद्री से ताडपत्रपर लिखी हुई प्राचीन प्रतिसे उद्धृत की गई " संयम श्रुतप्रतिसेवना " सूत्रकी श्लोकवार्तिक नामक टीका मंगायी वहांकी अतिप्राचीन दो, तीन ताडपत्रकी प्रतियोंमें उपकरणवकुश मुनिके शीतकाल आदिमें कम्बल, कौशेय, आदि वस्त्र ग्रहण कर लेनेका विधान सर्वथा नहीं है । न जाने उत्तर प्रान्तकी कतिपय प्रतियोंमें यह सदोष प्रकरण किसने प्रक्षिप्त किया है ? श्री विद्यानन्द स्वामीकी मूल कृति ताडपत्रीय प्राचीन लिखित ग्रन्थोंमें इस प्रकार है । उसको अविकल उद्धृतकर हम लिखते हैं । वस्तुतः गम्भीर विद्वान् श्री विद्यानन्द स्वामीजीका लेख ऐसाही होना चाहियें ।
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संयमश्रुत प्रतिसेवनातीर्थीलग इत्यादि - तसोऽलक्षणत्वादनिर्देश इति चेत् नान्यतोपीति वचनात्सिद्धेः । भवदादि योगें स इति चेत् नान्यत्रापि दर्शनात् । नार्थतो न शद्वतोऽभिधानतः समध्यम इति यथा । प्रतिसेवनेति षत्वाभावः क्रियान्तराभिसम्बन्धात् । प्रतिगता सेवनेति विगता सेवका यतो ग्रामादसौ विसेवको ग्राम इति यथा । पुलाकादय: संयमादिभिः साध्या व्याख्येया त्यर्थः कथमित्याह -
संयमादिभिरष्टाभिरनुयोगैर्यथाक्रमम्,
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साध्यास्तेऽत्र पुलाकाद्यास्तज्ज्ञैर्भेदप्रभेदतः ॥ १ ॥ संयमाः पंच निर्दिष्टाः श्रुतं च बहुभेदभृत् । सतो विराधने पश्चात्सेवना प्रतिसेवना ॥ २ ॥