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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
है। इसका अर्थ यह है कि पुलाक मुनि निवृत्त हो जाता है। ऊपरले संयमस्थानोंको नहीं ग्रहण कर पाता है । वहांसे ऊपर कषायकुशील अकेलाही संयमस्थानोंपर गमन करता है, इन स्वल्प असंख्याते संयम स्थानोंपर इस कषयकुशीलकाही अधिकार है। उसके अनन्तर असंख्याते उपरितनवर्ती संयमस्थानोंपर कषायकुशील, प्रतिसेवना कुशील और वकुश मुनि युगपत् साथ साथ गमन करते हैं। इसका अर्थ यह है कि-- ऊपरले जिनदृष्ट असंख्याते संयमस्थानोंको उक्त तीनों मुनि प्राप्त कर लेते हैं। उसके पश्चात् वकुश मुनिका ऊपर संयमस्थानोंपर जाना निवृत्त हो जाता है । इसका अर्थ यह है कि वकुश मुनिकी इतनेही मध्यवर्ती संयमस्थानोंतक गति है । इसके आगे वकुशकी व्युच्छित्ति हो जाती है। उस वकुशकी गतिसे भी ऊपर प्रतियेवना कुशील असंख्यातें संयमस्थानको चलकर व्युच्छिन्न हो जाता है। उससे भी असंख्याते स्थान ऊपर चलकर कषायकुशीलकी व्युच्छिति हो जाती है। भावार्थ-- कषायकुशील इनसे ऊपरले संयमस्थानोंका अधिकारी नहीं है। अब इससे ऊपर ग्यारहवें, बारहवें, गुणस्थानोंमें मोहनीयके उपशम या क्षयसे हो जानेवाले अकषायसंयम स्थानोंको निर्ग्रन्थ मुनिवर प्राप्त करते हैं। वें भी असंख्याते संयमस्थानोंतक चलकर व्युच्छिन्न हो जाता है। उससे ऊपर एकही संयमस्थानको प्राप्त होकर स्नातक जिनेंद्र परमनिर्वाण पदको प्राप्त कर लेता है । यों पुलाक आदिकी संयम लब्धियोंसे स्नातककी संयमलब्धि अनन्तगुणी हो जाती है। यह बात युक्ति और आगमसे सिद्ध हो चुकी समझ लेनी चाहिये ।
शास्त्रोक्ताः शरसंख्यकाः ऋषिवराश्चारित्रसंसाधकाः, भव्याम्भोजविकासने दिनकरास्ते वै पुलाकादयः, दृक्शुद्धयादिषु तत्पराः सुरनुताः ज्ञानाब्धि संभाविता, स्तेमे भूरि दुरन्तदुर्गहरणे किन्न क्षमाः क्षेमदाः ॥ १५ ॥
सर्वज्ञ आम्नाय अनुसार ग्रन्थित किये गये शास्त्रोंमें ऋषि श्रेष्ठ मुनि पांच प्रकार माने गये हैं। कामके बाण पांच हैं । अतः चारित्रका भले प्रकार साधन कर रहे ऋषि महाशय शर यानी वाणोंकी पांच संख्याको धार रहे हैं। वें पुलाक आदिक पांचो प्रकारके साधु नियमसे भव्यजीव स्वरूप कमलोंके विकासनेमें सूर्यके समान हैं।