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नवमोध्यायः
हैं। इस प्रकार बहुतसीं विप्रतिपत्तियां होनेसे मनिके सचेल लिंगका प्रकट करनेके लिये कोई ठोस तत्त्व नहीं दीखता हैं। संदिग्ध तत्त्वको विद्वान् लोग नहीं मानते हैं । यदि वीरनाथने वस्त्रका ग्रहण किया था तो फिर उसका विनाश क्यों इष्ट किया गया है । वे वस्त्रको सदा ही पहिरे रहते । जैसे कि जन्मसे लेकर दीक्षाके पहिले तक देवोपनीत वस्त्रोंको धारण करते थे। एक बात यह भी है कि " वस्त्र नष्ट हो जायगा।" इस प्रकार प्रभुको यदि ज्ञान था तो उस वस्त्रका ग्रहण उन्होंने व्यर्थ किया यदि ज्ञान नहीं था, तो इस भगवान्के अज्ञानभाव प्रकट होता है जो कि इतना अज्ञान अवधिज्ञानी भगवान्को होना नहीं चाहिये । यदि तुम श्वेतांबर यों भी कहो कि वीरनाथने मुनिका लिंग वस्त्र है । इसको प्रज्ञापित करने के लिये वस्त्र ग्रहण इष्ट किया था। तब तो हम कहते हैं कि “ पहिले तीर्थंकर और पिछले तीर्थंकरके यहां आचेलक्य यानी वस्त्ररहितपना धर्म माना गया है। " यह वचन झ्ठ पड जावेगा। तिसी प्रकार नवस्थानमें जो यह कहा गया है कि " जिस प्रकार मैं आदिनाथ भगवान् वस्त्ररहित हूं उसी प्रकार पिछला तीर्थंकर महावीर स्वामी भी अचेलक होवेगा।" उस वचनके साथ भी तुम्हारे कथनका विरोध हो जावेगा। एक बात यह भी है कि यदि आप तीर्थंकरोंके साधु अवस्थामें वस्त्रधारण मानते हैं। तो वीर जिनेन्द्र के समान अन्य तेईस तीर्थकर जिनेंन्द्रोंके भी वस्त्रके त्यागका समय क्यों नहीं आप लोगोंने कहा है। यदि उनका भी वस्त्र होता तो इस प्रकार वस्त्रके त्यागके कालको करना समुचित था। हां, यह कहना तो ठीक है कि संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग कर तीर्थंकर जिन जब ध्यानमें स्थिर हो जाते हैं । तो किसीने पहनानेके लिये वस्त्रको डाल दिया वह उपसर्ग हुआ कहा जायगा। यहांतक अचेलताही पुष्ट होती है । देखो, यह युक्ति भी अचेलताको भले प्रकार सिद्ध करने में तत्पर हो रही है कि परीषहके सूत्रोंमें शीत, देश मशक, तृणस्पर्श, परीषहोंको सहनेका निरूपण किया है । मोटे वस्त्रोंको पहने हुये साधुको शीत आदि परीषहें नहीं बाध पाती हैं । अतः ये परीषह सहनेके सूत्र अचेलताको ही दिखलाते हैं। निर्वस्त्रताको पुष्ट करनेके लिये आपके यहां अन्य भी आगम वाक्य हैं। साधु विचारता है कि “ वस्त्रोंका परित्याग कर चुकनेपर फिर मैं वस्त्रोंको ग्रहण नहीं करूंगा।" जों वस्त्रोंका त्यागकर अचेलकोंमें श्रेष्ठ है वह सदा जिनरूपका धारी है। वस्त्रसहित साधु लौकिक सुखमें मग्न हो जाता है । और वस्त्ररहित तो ऐंन्द्रियिक सुखी नहीं होता है। मैं वस्त्रसहित