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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
हो जाऊंगा।" इत्यादिक बातोंको भिक्षुक मनमें नहीं विचारे । और यों भी मनमें नहीं विचारे कि “ स्त्ररहित हो रहे रूखे मुझको एक समयमें शीत सतावेंगा इस कारण मैं घामका सेवन करूंगा" ऐसी निर्बलताप्रयुक्त चिन्तनायें साधु न करे । शीत आदि परीषहोंको साधु सहे यों बहुत सा आपके यहां प्राकृत, अपभ्रंश, भाषाओंमें अन्य भी कहा गया है। उत्तराध्ययनमें लिखा है कि सबसे पहले महात्मा पार्श्वनाथ और वर्द्धमान भगवान्ने एक निर्वस्त्रपनाही धर्म कहा है । पीछे मुनिधर्ममें प्रवृत्ति कर रहे साधुओंने दो प्रकार लिंगोंकी कल्पना कर ली है। अतः मैं दोनों सचेल, अचेल, लिंगमें संशयको प्राप्त हुआ हूं। इस प्रकार कथन करने से अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामीकी अचेलता सिद्ध होती है । दशवकालिक ग्रन्थमें भी यों कहा गया है कि जो नग्न हैं, मुण्ड है, जिसके नख, केश, बढे हुये है, जो मैथुनसे विरक्त है। ऐसे साधुको भूषण क्या करेंगे ? यों आपके ही अनेक प्रमाणोंसे अचेलताका समर्थन होता है। इस प्रकार अपराजित सूरिने आचेलक्य स्थितिकल्पका निरूपण किया है । इस आचेलक्यपर भगवती आराधना ग्रंथकी विद्वद्वरेण्य आशाधर कृत मूलाराधना टीकामें कथन किया गया है--आचेलक्यं वस्त्रादिपरिग्रहाभावो नग्नत्वमात्रं वा। तच्च संयमशुद्धीन्द्रियजय कषायाभाव ध्यानस्वाध्यायनिर्विघ्नता निर्ग्रन्थता वीतरागद्वेषता शरीरानादर स्ववशचेतोविशुद्धि प्राकटय निर्भयत्व सर्वत्र विस्तब्धत्व प्रक्षालनोद्वेष्टनादिपरिकर्मवर्जन विभूषामूर्च्छत्व लाघव तीर्थकराचरितत्वानिगढवल वीर्यताद्यपरिमित गुण ग्रामोपलम्भात् स्थितिकल्पत्वेनोपदिष्टम् । तद्गुण समर्थन टीका दृष्टया किंचिदुच्यते यथा-चेले हि स्वेदादियोनिक प्राणिनां प्रक्षालनादिना बाधा स्यात् इति तत्त्यागे संयमशुद्धिः । लज्जनीय शरीरविकारनिरोधनाय प्रयत्नदाढर्येन्द्रियजयः । चोरादि वञ्चनाद्यभावात्कषायाभावः । सूचीसूत्रकर्पटादिमार्गणा सेवनाद्यभावात्स्वाध्यायध्याननिर्विघ्नता । अभ्यन्तर ग्रंथस्य चेलादि परिग्रहमूलस्य त्यागः । मनोज्ञामनोज्ञवस्त्रत्यागात् वीतरागद्वेषता वातातपादिबाधासहनाच्छरीरेऽनादरः । देशान्तर गमनादौ सहायानपेक्षणात्स्ववशता, कौपीनादिप्रच्छादना करणाच्चेतोविशुद्धि प्रकटनं । चौरादि ताडनादिभयाभावानिर्भयत्वं, अपहार्यस्य अर्थस्याभावात्सर्वत्र विश्रब्धता, चतुदर्शविधोपकरणपरिग्राहिणां सितपटानामिध बहुप्रतिलेखनत्व प्रक्षालनादि व्यासंग भार वाहित्वानि च न सन्तीत्यादि । उक्तं च--
म्लानेक्षालनतः कुतः कृतजलाद्यारम्भतः संयमो । नष्टे व्याकुलचित्तता थ महतामप्यन्यतः प्रार्थनम् कौपीनेपि हृते परैश्च झगिति क्रोधः समुत्पद्यते। तन्नित्यं शुचि रागहृच्चमवतां वस्त्रं ककुम्मण्डलम् ।।