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नवमोध्यायः
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भूषित होना, मोहित हो जाना आदि खोटे भावकर्म भी परिग्रहीके विद्यमान हैं। वस्त्ररहित्पनेमें बारहवा गुण लाघव भी है । वस्त्रों या परिग्रहोंसे रहित हो रहा मुनि केवल पिच्छिका और कमण्डलु इन अल्प उपधियोंको धारकर खडे होने, बैठंचेगमन करने आदि क्रियाओंमें वायुके समान प्रतिबन्धकों, रहित हो रहा सन्ता लघु हो जाता है। किन्तु अन्य कोई परिग्रही लघु नहीं होता है। परिग्रहको पोटको लादकर भारी बना रहता है । अचेलता रहनेसे तेरहवां गुण तीर्थकराचरितत्व भी पाया जाता है । संहननोंकी सामर्थ्य से परिपूर्ण हो रहे और मोक्षमार्गसे प्रकाशन करने में तत्पर हो रहे ऐसे तीर्थंकर जिनेन्द्र जितने भी हो चुके हैं, और होंगे वे सभी वस्त्रहित ही हैं । जिस प्रकार सुमेरु पर्वत, नन्दीश्वरद्वीपस्थ गिरी विजयार्ध, कुलाचल आदि पर्वतोंमें चैत्यालयस्थ विराजमान हो रहीं जिनप्रतिमायें हैं। वे सब वस्त्रादि परिग्रहरहित हैं । तीर्थंकरोंके मार्गका अनुसरण करनेवाले जो गणधर हैं वे भी सब वस्त्र रहित हैं । तिसही प्रकार उनके शिष्य-प्रशिष्य भी अचेल हैं। यों अचेलपना सिद्ध हो जाता हैं। जिसने अपने शरीरको वस्त्रसे वेष्टित कर लिया है। वह जिनेंद्रसरीखा नहीं है। जिन रूपधारी साधु भी नहीं है । जिसने अपनी लम्बी भुजाओंको छोडकर नीचे लटका रक्खा है । वह निश्चल या निश्चेल होकर जिनेन्द्र प्रतिमाके रूपको धारण कर लेता है। अचेलतामें अत्यन्त गूढवलसहितपना और अत्यधिक वीर्यसहितपना भी गुण है । नग्नपुरुषही परीषहोंके सहनेमें समर्थ भी होता है । वस्त्रसहित हो रहा जीव परीषहोंको नहीं सहता है। इस प्रकार इन गुणोंका स्पष्ट दर्शन होनेसे जिनेन्द्र भगवान्ने अचेलताका उपदेश किया है। जिसका शरीर चारों ओरसे वस्त्रवेष्टित हो रहा है। वह यदि अपनेको निग्रंथ कहेगा तो उसके समान और भी पाषंडी निर्ग्रन्य क्यों न हो जायेंगे। “ हम ही निर्ग्रन्थ हैं। ये पाषंडी निर्ग्रन्थ नहीं हैं।" ऐसे युक्तिर हित कोरे वचनमात्र मध्यस्थ परीक्षकों करसे आदर नहीं पाते हैं। इस प्रकार वस्त्रधारण करने में अनेक दोष हैं। हां,अचेलतामें अपरिमित गुण हैं। इसही कारण सर्वज्ञ भगवान्ने अचेलताको स्थितिकल्प स्वरूप करके कहा है । अब अपराजित सूरि पूर्वपक्षपूर्वक सचेलत्वका खंडन करते हैं।
___ अथवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टं तथाह्याचारप्रणिधौ भणितं " प्रतिलिखेत्पात्रकम्बलं ध्रुवमिति । असत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते "। आचारस्यापि द्वितीयाध्यायो लोकविचयो नाम तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुवतं " पडिलेहणं